Book Title: Shatrunjay Mahatmya
Author(s): Shravak Hiralal Hansraj
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Acharya Sh
atasagar
Gyantander
शत्रुजप
माझro
॥१०॥
श्रांतवचसं । सापि तं दृप्तमुज्जगौ ॥ न वाक्यूरास्मि नृपते । नवानिव जवाहवे ॥ १ ॥ श्रुत्वेति नूपतिः खज-पाणिस्तां प्रति संचरन् ॥ स्वं तत्कर्तिकया वि-मपश्यक्तनिरं ॥ ए ॥ सावदच्च नृप ज्ञातं । स्वपौरुषमितस्त्वया ॥ ननिष्टोनिष्ट युधाय । सहोऽसि यदि सांप्रतं ।। ए३ ।। निशम्येति गिरं कंमू-श्वेतसीति व्यचिंतयत् ॥ अहो पराङ्मुखे दैवे। नाहिमपि निर्जितः । एव ॥ तावबलं महस्तावत् । तावत्कीर्तिरखंमिता ॥ यावत्पुराकृतं पुव्यं । न म्लानिमधिगवति ॥ ए५ ॥ पुण्यमेव प्रमाणं स्या-दंगिनां शुन्नकर्मणि ॥ कोणतेजाः कियत्कालं । तपत्यपि बिनाकरः ॥ ए६ ॥ पुण्यैः संन्नाव्यते सर्व । सुखदायि सदायति ॥ तदेव हीनपुण्यस्य । विषवःखदायकं ॥ ॥ योऽहं गजघटां धृत्वा । लीलया पुच्चचामरे ॥ पुरोदलालयं व्योनि । जितः सोऽप्यनयाधुना ॥ ए॥
इति चिंतयतस्तस्य । स्मृतिमार्गमुपागमत् ॥ राज्यत्यागो महारोगात् । क्रोधात्सुरनि- - संहतिः ॥ ए ॥ पुनस्तेनातिऽःखी स । चिंतयामासिवानिति ॥ चलितोऽहं मृतेः स्मृत्वा।
जीतोऽस्मि सुरन्नेः कथं ॥ १० ॥ प्रसंगान्मरणं मुक्त्वा । कृतं गोवधपातकं ॥ आयातमेव
॥१०॥
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