Book Title: Shatrinshika ya Shatrinshatika Ek Adhyayan Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 3
________________ त्रिशिका या षट्त्रिंशतिका : एक अध्ययन त्रिलोकसार सदश करणानुयोग के जटिल गणितीय प्रकरणों से समृद्ध ग्रंथ के टीकाकार होने के कारण लौकिक गणित में भी पर्याप्त रुचि रखते थे। इन्होंने जिस प्रकार त्रिलोकसार की टीका करते समय यत्र-तत्र अनेक गाथाओं को समाविष्ट किया है लगभग उसी प्रकार महावीराचार्य कृत गणितसारसंग्रह में से कुछ प्रकरण यथावत् लेकर एवं उसमें कुछ नवीन सामग्री जोड़कर षट्त्रिंशिका की रचना की गई है । फलतः यह अनुमान किया जा सकता है कि षट्त्रिंशिका के रचनाकार माधवचन्द्र विद्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे अर्थात् षट्त्रिंशिका के रचनाकार एवं त्रिलोकसार के टीकाकार से भिन्न हैं। इस दृष्टि से षट्त्रिंशिका का रचनाकाल १०-११ वीं श. ई. सिद्ध होता है। विशिका के उल्लेख -पत्रिंशिका का सर्वप्रथम उल्लेख महावीराचार्य की कृति के रूप में डा० कासलोवाल ने किया था। उनकी सूची में दिया गया विवरण निम्न है :भंडार का नाम-श्री दि० जैन मन्दिर, ठोलियॉन, जयपुर । ४६८, षट्त्रिंशिका-महावीराचार्य, पत्र संख्या-४५, साईज ११' x ४३" भाषा-संस्कृत, विषय-गणित, रचनाकाल-x, लेखनकाल–विक्रमाब्द १६६५ आसाढ़ सुदी ८, पूर्ण, वेष्ठन संख्या ४६५। ४६९. प्रति नं. २, पत्र संख्या--१८, साइज–११४४, लेखनकाल सं. १६३२ ज्येष्ठ सुदी-९, विशेष-प्रति पर छत्तीसी टीका भी लिखी है। कासलीवाल के उक्त विवरण के आधार पर १९६४ में मुकुट बिहारी लाल अग्रवाल ने अपने लेख में लिखा कि : __ "महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह के अतिरिक्त ज्योतिष पटल एवं षटत्रिशिका आदि मौलिक एवं अभूतपूर्व ग्रन्थों की रचना की है जो कि ज्योतिष एवं गणित विषयवस्तु के कारण महत्त्वपूर्ण हैं।" 'गणितसारसंग्रह के अतिरिक्त षट्त्रिंशिका नामक पुस्तक का उल्लेख राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूची में मिलता है। इसकी २ प्रतियाँ हैं-प्रथम में ४५ पत्र हैं एवं दूसरी में १८ पत्र । ये दोनों प्रतियाँ जयपुर के ठोलियॉन मन्दिर में विद्यमान है तथा इसमें महावीराचार्य ने बीजगणित की ही चर्चा की है। १९६९ में अंबा लाल शाह ने अपनी पुस्तक में इस कृति का उल्लेख ग्रंथ सूची के आधार पर किया है। १९६४ में अपने लेख में इतनी महत्त्वपूर्ण सूचना देने के बाद १९७२ में प्रस्तुत अपने शोध प्रबन्ध में अग्रवाल ने इसका कोई उल्लेख भी नहीं किया। वहां आपने केवल गणितसारसंग्रह को १. देखें, सं०-८-I, पृ० १४८ । २. देखें, सं०-१-I, पृ० ४२, ४३ । ३. देखें, सं०-१०-I, पृ० ६४ । ४. देखें, सं०-१-II, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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