Book Title: Shatrinshika ya Shatrinshatika Ek Adhyayan Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 5
________________ १४१ षट्त्रिंशिका या षट्त्रिंशतिका : एक अध्ययन जिन्हें मिलाकर ८ अध्याय होते हैं' मुद्रित संस्करण में प्रथम व्यवहार के २ भाग होने के कारण ९ हैं। अब हम क्रमिक रूप से इसकी विविध प्रतियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे । जयपुर प्रति-कासलीवाल ने ४६८ एवं ४६९ नं० पर जिन दो प्रतियों को षट्त्रिंशिका माना है उनमें से प्रथम प्रति अर्थात् ४६८ ही षट्त्रिंशिका है, दूसरी नहीं । हम ४६८ क्रमांक वाली प्रति को जयपुर प्रति की संज्ञा देंगे। इस प्रति में कुल ४५ पत्र हैं। ११" ४४" के आधार के प्रत्येक पत्र पर ११ पंक्तियाँ हैं । सन् १६०८ में लिखी गई (रचना नहीं) इस प्रति की दशा सामान्य है। कतिपय पृष्ठों को छोड़कर शेष पत्रों के अक्षर स्पष्ट एवं पठनीय है। उपलब्ध प्रति का प्रारम्भ गणितसारसंग्रह के समान ही "अलघ्यं त्रिजगत्सारं..." आदि मंगलाचरण से हुआ है। किन्तु इससे पूर्व “(६०) श्री वीतरागाय नमः" लिखा है। मंगलाचरण के उपरांत संज्ञाधिकार यथावत् गणितसारसंग्रह के समान है। अधिकार के अन्त में निम्न पुष्पिका है-"इति सारसंग्रहे गणितशास्त्रे महावीराचार्यस्य कृतो संज्ञाधिकारः समाप्तः।" इसके उपरांत परिकर्म व्यवहार नामक दूसरा प्रकरण है। इस प्रकरण को षट्त्रिंशिका में प्रथम प्रकरण लिखा गया है, गणितसारसंग्रह में भी इस प्रकरण के अन्त में निम्न प्रकार पुष्पिका लिखी है "इति सारसंग्रह गणितशास्त्रे महावीराचार्यस्य कृतो परिकर्म नाम प्रथमः व्यवहारः समाप्तः ।" इस प्रकरण की सामग्री भी (गणित) सारसंग्रह के समान ही है, पुष्पिका भी उपरोक्त प्रकार से ही है। तीसरा कला सवर्ण व्यवहार प्रकरण विषयवस्तु की दृष्टि से तो गणितसारसंग्रह के समान ही है किन्तु पुष्पिका एवं अन्त का कुछ अंश षट्त्रिंशिका की इस प्रति में नहीं है। चतुर्थ एवं पंचम क्रमश: प्रकीर्णक एवं त्रैराशिक व्यवहार प्रकरण भी न्यूनाधिक पाठान्तरों सहित समान है। पुष्पिकायें भी गणितसारसंग्रह के समान हैं। इन अध्यायों का पत्रानुसार विवरण निम्न है(१) संज्ञाधिकार पत्र संख्या १-४ (२) परिकर्म व्यवहार पत्र संख्या ४-१४ (३) कला सवर्ण व्यवहार पत्र संख्या १४-२८ (४) प्रकीर्णक व्यवहार पत्र संख्या २८-३४ (५) त्रैराशिक व्यवहार पत्र संख्या ३४-३९ (६) वर्ग संकलितादि व्यवहार पत्र संख्या ३९-४५ १. विस्तृत विवरण हेतु देखें सं०-३-II एवं III २. यह परिकर्म व्यवहार का ही एक भाग है । ३. षट्त्रिंशिका की अन्य कृतियों में क्या स्थिति है । इसका निर्धारण अन्य प्रतियों के अध्ययन से ही किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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