Book Title: Shatrinshika ya Shatrinshatika Ek Adhyayan
Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 7
________________ षट्त्रिंशिका या षट्त्रिंशतिका : एक अध्ययन १४३ सम्पूर्ण पांडुलिपि में अधिकांश पत्रों में उपयोगी टिप्पण पत्र के किनारों पर दिये गये हैं। कहीं-कहीं गणनायें देकर विषय को स्पष्ट किया गया है। पत्र संख्या ४४ के किनारे पर १५ का Magic Square दिया है। त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने के सन्दर्भ में A का चित्र भी टिप्पणी में दिया गया है। अन्तिम पत्र पर "इति षट्त्रिंशिका ग्रन्थ समाप्तः"। लिखने के उपरांत निम्न प्रशस्ति लिखी है "वि० संवत् १६६४ वर्षे असौज सुदी व गुरो श्री मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भग० श्री पद्मनन्दिदेवा, तत्पट्टे १ ब्र० श्री सकलकीर्ति देवा, तत्पट्टे म० श्री भुवनकोति देवा, तत्पट्टे म० श्रीज्ञान भूषण देवा, तत्पट्टे म० शुभ चन्द्र देवा, तत्प? म० सुमतिकीर्ति देवा, तत्पट्टे म० श्री गुणकीर्ति देवा, तत्पट्टे वादिभूषण देवास्ताद गुरुभ्राता ब्र० श्री भीमा तशिष्य ब्र० मेघराज तत् शिष्य ब्र० केशव पठनार्थे ब्र० नेमदासस्येदं पुस्तकं ।" स्पष्टतः प्रशस्ति से रचयिता या रचनाकाल पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है । षट्त्रिंशिका के कृतित्व के संदर्भ में किसी अर्थमूलक परिणाम पर पहुँचने के लिए अन्य प्रतियों की खोज एवं उनका अध्ययन भी आवश्यक है। कारंजा भंडार प्रति-१ (छत्तीसी गणित) कारंजा के शास्त्र भंडार में (बलात्कारण मन्दिर-कारंजा) प्रतिक्रमांक ६३ पर छत्तीसी गणित ग्रन्थ सुरक्षित है।' ४९ पत्रों की इस प्रति के पत्रों का आकार ११.७५" ५५" है एवं प्रत्येक पत्र पर ११ पंक्तियां हैं। इस कृति का भी प्रारम्भ ६०, ॐ नमः सिद्धेभ्य", अलध्यं त्रिजगत्सारं 'आदि मंगलाचरण से हुआ है। पुनः परिकर्म व्यवहार पत्र संख्या १ से १५ तक क्लासवर्ण व्यवहार पत्र संख्या १५ से ३२ तक प्रकीर्णक पत्र व्यवहार संख्या ३२ से ३६ तक त्रैराशिक व्यवहार पत्र संख्या ३६ से ४२ तक चचित है। इसके तत्काल बाद जयपुर प्रति के समान ही 'श्री वीतरागाय नमः" (६) छत्तोसमेतेन सकल ८... 'शोध्य सार संग्रह मेनिसिकों बुटु ( वर्ग संकलितानयन सूत्रं ) आदि विवरण है। पत्र संख्या ४२-४९ तक विविध विषयों को चर्चा है । अंतिम पृष्ठ ४९ पर लिखा है कि "धनं ३५ अंक संदृष्टिः छः" इति छत्तीसी गणित ग्रन्थ समाप्तः (छः छ) श्री शुभं भूयात सवैषां । संवत् १७०२ वर्षे भगसिरवदी ४ बु० संवत् १७०२ वर्षे माघ श्रुदि ३ शुक्ल श्री मूल संघे........ छत्तीसी गणितशास्त्र दत्तं श्रीरस्तु । । षट्त्रिंशिका का अर्थ छत्तीस होता है अतः ऐसा प्रतीत होता है मानों ग्रन्थ के शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कर दिया गया है। यह ग्रन्थ भी षट्त्रिंशिका ही है। १. विवरण स्रोत-गणितसार संग्रह, हिन्दी संस्करण, परिशिष्ट, ५ पृ० ५५ । २. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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