Book Title: Shatrinshika ya Shatrinshatika Ek Adhyayan Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 2
________________ १३८ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल दूसरे माधव चन्द्र विद्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य हैं। दुर्गदेव ने श्री निवास राजा के शासन काल में रिष्टसमुच्चय की रचना कुम्भ नगर में की थी। दुर्गदेव ने अपने गुरु संयम सेन के साथ माधवचन्द्र का भी स्मरण किया है । उन्होंने लिखा है कि जयऊ जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरों इत्थ । तहव हु संजम सेणो माहवचन्दो गुरू तह य ।' अर्थात् संयम-देव के गुरु संयम सेन एवं संयमसेन के गुरु माधव चन्द्र बतलाये गये हैं। दुर्गदेव के गुरु का नाम संयमदेव था एवं उनका समय १०३२ ई० है। अतः माधवचन्द्र का समय इनसे लगभग ५० वर्ष पूर्व होना चाहिये । इस प्रकार माधवचन्द्र, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य ही होने चाहिए। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य माधव चन्द्र विद्य ने अपने गुरु की आज्ञा से त्रिलोकसार में यत्र-तत्र अनेक गाथायें समाविष्ट की थी, यह तथ्य निम्न गाथा से स्पष्ट है । गुरुणेमिचंद सम्मदकादियवगाहा जहिं तहिं रडया । माहव चंदतिविजोणिय मणु सदणिज्ज मज्जेहिं ॥२ __तीसरे माधवचन्द्र त्रैविद्य मूलसंघ, क्राणर गण, तिन्त्रिणी गच्छ के विद्वान् जैन मुनि चन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे। जैनशिलालेख संग्रह, तृतीय भाग के लेख नं० ४३१ में (इसको वि. स. १२५४ में उत्कीर्ण किया गया था) जिन सकलचन्द्र का उल्लेख किया है, उनके शिष्य हो ये माधवचन्द्र (विद्य) हैं । इन्होंने क्षुल्लकपुर (वर्तमान कोल्हापुर) में क्षपणासार गद्य की रचना की थी। __ माधव चन्द्र ने इस ग्रंथ की रचना शिलाधर कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधानमन्त्री बाहुबली के लिए की थी जिन्हें माधवचन्द्र ने भोजराज के समुद्धरण में समर्थ बाहुबलयुक्त, दानादि गुणोत्कृष्ट, महामात्य एवं लक्ष्मीवल्लभ बतलाया है। इन्होंने १२०३ ई० में क्षपणासार गद्य की रचना की थी। यह तथ्य निम्न गाथा से स्पष्ट है : अमुना माधव चन्द्र दिव्य गणिना, त्रैविद्यचक्रेशिना, क्षपणा सारम करि बाहुबलि सन्मंत्री सज्ञप्तये ।। सकलकाले शर-सूर्य-चन्द्रगणिते जाते पुरे क्षुल्लके, शुमदेदुन्दुभि वत्सेर विजय तामा चन्द्र ताव मुवि ।। षट्त्रिंशिका के कर्ता माधवचन्द्र विद्य इन तीनों में से कौन से माधवचन्द्र हैं, यह निर्धारित करने हेतु कोई ठोस प्रमाण नहीं है । तथापि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य माधवचन्द्र विद्य १. रिष्टसमुच्चय-गोधा जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर-पद्य-२५४. पृ० १६८ २. त्रिलोक सार, माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला-१९१८ । ३. सं० ७-I, पृ० ३९७ । ४. वही, पृ० ३९७ । ५. क्षपणासार गद्य प्रशस्ति-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग-१, पृ० १५५ । ६. सं०७-I, पृ० ३९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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