Book Title: Shatpadi Prashnottar Paddhati me Pratipadit Jainachar
Author(s): Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 8
________________ ३८ रूपेन्द्र कुमार पगारिया ६. कल्पविशेषणि ७. पञ्चाशकटीका आदि हमें इन अनुपलब्ध ग्रन्थों का पता लगाना चाहिए तथा उपलब्ध किन्तु अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करना चाहिए। आचार्य महेन्द्रसिंह सूरि का समय वि० सं० १२३७-१३०९ तक का है। इनके समय में मूर्तिपूजक समाज ८४ गच्छों में विभक्त था। ८४ गच्छों की विभिन्न मान्यताएँ उनके आचार, विचार उस समय के जैन समाज में प्रचलित थे। आचार एवं विचारभेद के कारण एक गच्छ के आचार्य दूसरे गच्छ के आचार्य के साथ वाद-विवाद करता था। एक आचार्य दूसरे आचार्य के साथ वाक्युद्ध में उतरता था। इस धार्मिक युद्ध से आचार्य महेन्द्रसिंहसूरि बड़े व्यथित थे। वे कहते हैं -हमारे संप्रदायों में सैकड़ों आचार एवं विचारों का वैचित्र्य दृष्टिगोचर होता है। सभी अपने अपने विचारों को सत्य बताते हैं तो हमें किन विचारों को मानना चाहिए मेरी दृष्टि से जो विचार शास्त्रसम्मत हों उन्हें ही मानना चाहिए। इसी से ही समाज में शांति स्थापित हो सकती है। आ० महेन्द्रसिंह सूरि ने उस समय की ५० विभिन्न प्रचलित मान्यताएँ अपने ग्रन्थ में दी हैं। वे ये हैं १. कोई चैत्य में निवास करता है तो दूसरा साधु चैत्य निवास को मुनि के कल्प के विरुद्ध मानकर श्रावकों के लिए बनाई गई वसति में ही निवास करता है। २. कोई नमोक्कार मंत्र में "हवइ मंगलं" बोलता है तो दूसरा "होइ मंगलं'। ३ कोई चैत्यवन्दन में "नमः श्री वर्द्धमानाय, नमः तीर्थेभ्यः, नमः प्रवचनाय, नमः सिद्धेभ्यः" ऐसे चार पद बोलता है, कोई एक ही पद बोलता है, तो कोई एक भी पद नहीं बोलता। ४. कोई नमस्कार मंत्र का उपधान मानते हैं, तो कई उपधान को शास्त्रविरुद्ध कहकर उसका निषेध करते हैं। ५. एक अपने हाथ से मालारोपण करते हैं। कोई दूसरों के हाथों से मालारोपण कर वाते हैं। तीसरा पक्ष मालारोपण को ही शास्त्र के प्रतिकूल मानकर उसका निषेध करता है। ६. एक पक्ष प्रतिक्रमण में "आयरिय उवज्झाए' आदि गाथाएँ बोलता है। दूसरा पक्ष नहीं बोलता। ७. एक पक्ष साध्वी का प्रथम लोच गुरु द्वारा ही होना चाहिए---ऐसा मानता है, तो दूसरा पक्ष साध्वी का लोच साध्वी को ही करना चाहिए ऐसा मानता है। ८. एक पक्ष जिन स्नान पञ्चामृत से मानता है दूसरा पक्ष गन्धोदक से । ९. एक पक्ष श्रावक का "शिखाबन्ध" मानता है तो दूसरा पक्ष कलशाभिमंत्र करना मानता है। तीसरा पक्ष दोनों बातों को नहीं मानता। १०. एक पक्ष जिन प्रतिमा को रथ में रखकर छत्र, चँवर के साथ गाँव में घुमाता है, दिग्पालों की पूजा करता है। बलि फेंकता है। तो दूसरा पक्ष इन सब बातों का निषेध करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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