Book Title: Shatpadi Prashnottar Paddhati me Pratipadit Jainachar
Author(s): Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 6
________________ રૂદ્ रूपेन्द्र कुमार पगारियां १३. तुम्बे का कण्ठ सीना या उसमें डोरा बाँधना शास्त्र विरुद्ध नहीं है । १४. चूहे आदि से बचने के लिए साधु अपने वस्त्र आदि खूंटी पर भी टांग सकता है । १५. कारणवश साधु अपने पास औषध अ दि भी रख सकता है । १६. कारणवश साधु लेख या संदेश भेज सकता है । १७. संवत्सरी तक साधु को अवश्य लोच कर लेना चाहिए । १८. प्रसंगवश साधु मधुर, स्निग्ध और पौष्टिक आहार भी कर सकता है । १९. साधु को नैऋत्य दिशा में ही स्थंडिल जाना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । अनुकूलता न हो तो अन्य दिशा में भी स्थंडिल जा सकता है । २०. साधुओं को एकांगिक रजोहरण नहीं मिले तो अनेकाङ्गिक भी ग्रहण कर सकता है । २१. साधु तुंबे के पात्र के सिवाय अन्य आलेपित पात्र में भी भोजन कर सकता है । २२. साधु भिक्षा के लिए गाँठें लगाकर झोली बना सकता है । २३. साधु दशायुक्त वस्त्र ले सकता है किन्तु उसका उपयोग नहीं कर सकता । २४. सामान्यतः साधु, साध्वी को नहीं पढ़ा सकता, किन्तु कारणवश उन्हें पढ़ा सकता है और आगम की वाचना भी दे सकता है । २५. कारणवश साधु प्रावरण ( कम्बल या दुशाला ) भी ओढ़ सकता है । २६. साधुओं को जैनकुलों में ही भिक्षा लेनी चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । साधु जैनेतर कुलों में भी भिक्षा ले सकता है । २७. बीमारी आदि कारण से साधु फलादि भी ग्रहण कर सकता है । २८. साधु को तृतीय प्रहर में ही भिक्षा के लिए जाना चाहिए, ऐसा एकान्त नियम नहीं है अन्य प्रहर में भी भिक्षा के लिए जा सकता है । २९. साध्वी जिस क्षेत्र में निवास करती हो उस क्षेत्र में साधु को नहीं रहना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । ३०. घर में एक से अधिक संधाडे को नहीं जाना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । ३१. साधु को संसृष्ट हाथ से या संसृष्ट कडछी आदि से ही आहार लेना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । असंसृष्ट हाथ या कड़छी से भी साधु आहार ग्रहण कर सकता है । ३२. समर्थ होने पर भी यदि साधु या श्रावक पर्व दिनों में तप नहीं करता है तो वह प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है । यह नियम बाल, वृद्ध, ग्लान आदि के लिए लागू नहीं होता । ३३. नमोत्थुणं में 'दिवोत्ताणं सरणगईपइट्टा, नमो जिनाणं जीय भयाणं तथा 'जे अइयासिद्धा' ये जो पाठ हैं, उन्हें नहीं बोलना चाहिए । ३४. नमोकार मंत्र में 'हवइ मंगलं' के स्थल में 'होइ मंगलं' ही बोलना चाहिए । क्योंकि 'होई मंगल' यही पाठ ही प्राचीन और शुद्ध है । ३५. साधु को एक ही बार भोजन करना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है । कारणवश वह एक से अधिक बार भी आहार कर सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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