Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 4
________________ [। प्रस्तावना [वितीय स्तमकान्तर्गत विषयष ] प्रस्तुत पश्य में वितीय और तृतीय स्तबक का समावेश किया है-fnसमें द्वितीय तपक के भारम्भ में हिंसा जूठ मावि असत्प्रवृत्तियों से पापमय और महिसावि के पालन से शुभ पुष्प बन के उपार्जन' सिमास की प्रतिष्ठा की गयी है। व्याख्याकार महषि ने महां शारप्रमाण का अनुमान में ही अन्तर्भाव करने वाले शेषिकावि के मतको आलोचना करके स्वमात्र शमप्रामायका व्यवस्थापन किया है। पुण्य पाप के कारणों की व्यवस्था करने पर जोशका उहायी गयो है कि अशुभ अनुष्ठान से भी सुखप्राप्ति कभी होतो तो वह कैसे? इसका मामिक उत्तर कारिका में दिया गया है । मिस आगम से पुष्प पाप के मियम को सिद्धि हो रही है वह भी तो प्रतिपक्ष अम्गम से बाधित होने से बह नियम कैसे सिख होगा? इस प्रश्न के उत्तर में प्रतिपक्षी आगर्मों की दुर्बलता इस आधार पर बलामो गयी है और इष्ट जभय से विश्व होने का जरिये आप्त पिचित नहीं है । कैसे ४ा और स से बिरुद्ध है यह भी सीसवीं कारिका से लाया है । यह मस्याम भाव के साघम पर विचार किया गया है और प्रग से श्री पायाकार ने मध्यस्पभाष उत्पादक पाताल प्रक्रिया का वर्णन किया है । पागे चलकर संसारमोनक मत का भी यहाँ प्रतिकार किया गया है । मुक्ति सायक कमबाप के सम्मवित चार प्रकार का विमर्श किया गमा है । अत में यह स्थापित किया है मुक्ति साधक कर्मक्षयमानयोग का फल है और महिमाधि के उत्कर्ष विना लामपोग सिन हो होता। इससे यह मो फलित हो जाता है वास्त्रों में निहित होने पर भी हिसा सस्थत पापममक हो है। यह मशीय हिंसा के बचाव में मोमांसक कुमारिस भट्ट. प्रभाकर मिश्र और नेयाविकों के अभिप्राय की व्याख्याकार ने सरत शालोबना कोई और महाभारत मनुस्मान योगशिष्ट आदि ग्रन्थों का भी हिसामय यज्ञ-यागों के प्रति विशेष नट्टाछुत किया गया है। पीय हिमा के विरोध उपरांत ग्याल्याकार ने जैन वन अनुसार हिंसा का समय' प्रस्तुत कर अन्त में बेवशास्त्र के अप्रामाण्य का प्रमासिब उसोष कर दिया है। सपनातार इस स्तबक में गुभाशुभ सर्व कर्म के कर्ता के रूपमें आस्मा को दोखा कर वह पों अपने ही अहित में भी प्रवृत्त होता है ।म प्रश्न का उत्तर मह दिया गया है किम जनित बना हि माहितकर करयों में आत्मा को प्रबुत करती है। यही कमवार को प्राधान्य मिल जाता है सब उसके सामने कालबादी अमो दृष्टि से कालिक कारणता की घोषणा करता है Fभाववादो स्वभाव की कारणता को प्रस्तुत करता है, नियतिवादी निर्यात को ही सर्वभावकमयित्री के रूपमें उपस्थित करता है। इन पापों के सामने कर्मपाणी कर्म कारणताको सुरक्षित रखना चाहता है। सिंबाम्तो इन सभी एकान्तवादों में आग अलग पुषण भारोपित करके अन्त में यह म्यापित करता है काममात्र में कालादि में से कोई एक हो कारण नहीं है और उनको स्तम्ब कारगता भी नहीं है किन्तु उनका समवाय (समुवाया ही भावमा का कारण है-द्वितीय स्तबक यहां पूर्ण होता है।

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