Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1 Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan View full book textPage 3
________________ वहीं मानव के उत्थान का सहो उपमा जान कर जिन शा वस्तुको सापेक्ष दृष्टि से न देख कर निरपेक्ष दृष्टि से देखने का आग्रह प्रदर्शित किया है, जैन मान्यता के अनुसार उन्हें सत् शास्त्र नहीं कहा जा सकता । यही कारण है कि जैनाचार्य एकान्तवादी दर्शनों को कुदर्शन कहते हैं और मुमुक्षुजनो के लिये उन्हें अनुपादेय बताते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य को आत्मा का वास्तव उन्नयन करने के हेतु जैन मतानुसार अपूर्ण असव एकान्तवाद) शास्त्रों के मार्ग पर न चलकर अनेकान्तवादों वीतराग सर्वज्ञोदित जैन शास्त्र के बताये मार्ग पर हो पूर्ण आस्था के साथ अग्रप्तर होना चाहिये । प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिजो ने इन विषयों के प्रतिपादनार्थ जिस विशाल साहित्य की रचना की है-'शास्त्रवार्तासमुच्चय उस साहित्य का एक जाज्वल्यमान रत्न है। आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ में आस्तिक नास्तिक सभी दर्शनों की अनेक मान्यताओं का विस्तार से वर्णन किया है और यथासम्भव अत्यन्त निष्पक्ष और निराग्रभाव से सभी के युवतायुक्तत्व की परीक्षा कर अनेकान्तवाद का विजयध्वज फहराने का पूर्ण एवं सफल प्रयत्न किया है। न्यायविशारद उपाध्याय श्री यशोविजयजो जो जैन सम्प्रदाय में लघु हरिभद्र कहे जाते हैं उन्होंने नव्यन्याय को शैली में इस ग्रन्थ पर 'स्याहाद कल्पलत्ता' नाम को एक पाण्डित्यपूर्ण विस्तृत व्याख्या लिखकर ग्रन्थ के अन्तर्निहित महिमा को उद्भावित किया है । और सैकड़ों प्रसङ्गोमें कारिका के सूक्ष्म संकेतों के आधार पर सम्बद्ध विषयों का प्रौढ पूर्वोत्तर पक्षके रूपमें इतना गंभीर और विस्तृत विचार किया है, जिससे अनायास यह धारणा बनता है कि भाचार्य ने छोटे छन्द की कारिकाओ में इतनो विस्तृत और गारेष्ठ ज्ञानराशि को संचित कर गागरमें सागर भरने जैसा कार्य किया है । । हमें इस ग्रन्थ को पहलीबार देखने का अवसर तब प्राप्त हुआ जब जैन जगत् के मूर्धन्य महामनीषी आचार्य श्री रामचन्द्रसूरि महाराज सा० ने लगभग ४० वर्ष पूर्व राधनपुर गुजरातमें इस प्रन्थ का गौरव वर्णन किया व इसे देखने के लिए हमें प्रेरित किया और इम भी इस महान् शास्त्र व उसकी टोका देखकर उसकी बहुमूल्यता पर मुग्ध हुथे, जिसके फल स्वरूप इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में हमारी अभिरूचि उत्पन्न हुई । बाद में अनेक वर्षों के अनन्तर उसके प्रिय सतीर्थ्य न्यायादि अनेक शास्त्रों में विद्यारसस्नात जैनाचार्य श्री विजय भुवनभानुसूरिजी म. ने यह इच्छा व्यक्त की कि इस मूलग्रन्थ और व्याख्या दोनों का हिन्दी भाषा के माध्यम से एक विवेचन प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे ग्रन्थ को समझने में सहायता मिल सके तया अन्य का परा मर्म विशद रूप से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो सके । इस प्रन्थ को गम्भीरता और विषयसमृद्धता के कारण इसके प्रति हमारा आकर्षग पहले से था ही जो आचार्य श्री भुवनभानुसूरिजी के मनुरोध से उद्दीत हो ऊठा ।Page Navigation
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