Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ हिन्दीविवेचनकार के दो शब्द भाचार्य श्रीमद् हरिभदसूरिजी म० जैन परम्परा में १४ ४ ४शास्त्रप्रणेता बहुश्रुन आचार्य माने जाते हैं। जैन इतिहाप्त लेखकों का कहना है कि वे जन्मतः ब्राह्मण थे तथा वेद और वेदानुमामी अनेक शास्त्रों के पारदृश्वा विद्वान थे, किन्तु जैन सम्प्रदाय के सम्पर्क में आने पर जब उन्हों ने जैन शास्त्री का विधिवत् अध्ययन किया तब उन्हें ऐसा अनुभव हुमा कि जैन शास्त्र हो पूर्ण एवं प्रमाणभूत शास्त्र है, उसीने वस्तुके सत्य स्वरूप अनेकान्त का प्रतिपादन मिया है । अन्य विद्वानों ने जैन शास्त्रों के ही प्रांतपाद्य तत्वों का अंशतः ग्रहण कर और उन्हें एकान्तवाद का परिधान देकर अन्यान्य अनेक मतवादो को जन्म दिया है। जैनाचार्यों का कहना है कि 'द्वादशाङ्गी' का बारहवाँ भङ्ग 'दृष्टिवाद' यदि आज उपल. ब्ध होता तो सुधौवर्गको स्पष्ट अवगत हो जाता कि वह ज्ञान का एक अगाध सागर है जो उसमें है वहीं अंशतः इतर सम्प्रदायों के शास्त्रों में है और जो उसमें नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं। पर दुर्भाग्य की बात है कि वह माज उपलब्ध नहीं है। संसार के सम्बन्ध में जैनों की यह मान्यता है कि संसार प्रयाहरूपप्ते अनादि और अनन्त है, जिसमें जीव अनादि कालसे अपने उच्चावच कर्मों के अनुरूप विभिन्न गति प्राप्त करता है भोर यथासमय अपनी भव्यता के अनुसार अपने आत्मोद्धार का मार्ग पाने की चेष्टा करता है । संसार अनादि होनेसे हो उसका कोई कर्ता नहीं है। ईश्वर के सम्बन्ध में जैनों को मान्यता है कि ईश्वरत्व कोई नित्य नै पर्गिक वस्तु नहीं है अपि तु जीव के पुरुषार्थ को हो उपलब्धि है। सम्यक् ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यक चारित्र की साधना के फलस्वरूप जिनके परमात्मस्वरूप के घातक समस्त को बन्धन तट जाते हैं एवं जिनके हृदयमें अन्तिम भव के पूर्व तृतीय भव में उस्थित प्राणी मात्र के आत्मोद्वार की प्रबल भाकाक्षा के प्रभाव से उपार्जित तीर्थकरनाम कर्म का विपाक प्रादुर्भूत होता है वेही केवलज्ञान और जीवन्मुक्ति प्राप्त होने पर अर्हत् तीर्थकर परमेश्वर को महामहिम संज्ञा से मण्डित होते है और ही धर्मशासन की स्थापना करते हैं जिसमें जीवादि तत्त्व, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग व ज्यादादादि सिद्धांत एवं नय-प्रमाण-सप्तभङ्गी आदि वस्तुबोधक प्रमाणों का समावेश होता है। उन्हीं के शासनमें रह कर मानबजाति आत्मकल्याण की साधना कर सकती है। जैनों की यह भी मान्यता है कि तीर्थकर भगवान के मुखारविन्द से निर्मत 'उप्पन्नेह वा विगमेइ वा धुवेद वा' इस त्रिपदी को सुनकर उसमें समाविष्ट समग्र अर्थसमूह को ग्रहण करने की क्षमता रखने के कारण गणधर कहे जाने वाले प्रमुख शिष्यों को मति श्रुत ज्ञानावरण कर्मों का अपूर्व क्षयोपशम हो जाता है और वे ही द्वादशा आगमकी रचना कर जगत् का उपकार करते हैं । जैनों को यह भी मान्यता है कि जिन (अर्हत्) और जिनमत ही सत्य है और एक मात्र

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 371