Book Title: Shasan Chatustrinshika aur Madankirti
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 3
________________ इस तरह यह रचना जहाँ दिगम्बरशासनके प्रभावको प्रकाशिका है वहाँ इतिहास प्रेमियोंके लिए इतिहासानुसन्धानकी इसमें महत्त्वपूर्ण सामग्री भी है । अतः इसकी उपादेयता तथा उपयोगिता स्पष्ट है । इसका एक-एक पद्य एक-एक स्वतन्त्र निबन्धका विषय है। २. मुनि मदनकीर्ति अब बिचारणीय है कि इसके रचयिता मुनि मदनकी ति कब हुए हैं, उनका निश्चित समय क्या है और वे किस विशेष अथवा सामान्य परिचयको लिवे हए हैं? अतः इन बातोंपर यहाँ कुछ विचार किया जाता हैसमय-विचार (क) जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, कि श्वेताम्बर विद्वान् राजशेखरसूरिने विक्रम सं० १४०५ में प्रबन्धकोष लिखा है जिसका दूसरा नाम चतुर्विशतिप्रबन्ध भी है। इसमें २४ प्रसिद्ध पूरुषों१० आचार्यो, ४ संस्कृतभाषाके सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितों, ७ प्रसिद्ध राजाओं और ३ राजमान्य सद्गृहस्थोंके प्रबन्ध (चरित) निबद्ध हैं । संस्कृतभाषाके जिन ४ सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितोंके प्रबन्ध इसमें निबद्ध हैं उनमें एक प्रबन्ध दिगम्बर विद्वान् विशालकोतिके प्रख्यात शिष्य मदनकीतिका भी है और जिसका नाम 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध' है । इस प्रबन्धमें मदनकीर्तिका परिचय देते हुए राजशेखरसूरिने लिखा है कि "उज्जयिनीमें दिगम्बर विद्वान् विशालकीर्ति रहते थे। उनके मदनकीर्तिनामका एक शिष्य था। वह इतना बड़ा विद्वान् था कि उसने पूर्व, पश्चिम और उत्तरके समस्त वादियोंको जीत कर 'महाप्रामाणिकचूडामणि' के विरुदको प्राप्त किया था। कुछ दिनों के बाद उसके मन में यह इच्छा पैदा हई कि दक्षिणके वादियोंको भी जीता जाय और इसके लिए उन्होंने गुरुसे आज्ञा मांगी। परन्तु गुरुने दक्षिणको ‘भोगनिधि' देश बतलाकर वहाँ जानेकी आज्ञा नहीं दी। किन्तु मदनकीति गरुकी आज्ञाको उलंघ करके दक्षिणको चले गये। मार्गमें महाराष्ट्र आदि देशोंके वादियोंको पददलित करते हुए कर्णाट देश पहुँचे । कर्णाटदेशमें विजयपुर में जाकर वहाँके नरेश कुन्तिभोजको अपनी विद्वत्ता और काव्यप्रतिभासे चमत्कृत किया और उनके अनुरोध करनेपर उनके पूर्वजोंके सम्बन्धमें एक ग्रन्थ लिखना स्वीकार किया । मदनकीति एक दिनमें पांचसौ श्लोक बना लेते थे, परन्तु स्वयं उन्हें लिख नहीं सकते थे । अतएव उन्होंने राजासे सुयोग्य लेखककी माँग की। राजाने अपनी सुयोग्य विदूषी पुत्री मदनमंजरीको उन्हें लेखिका दी। वह पर्दाके भीतरसे लिखती जाती थी और मदनकीर्ति धाराप्रवाहसे बोलते जाते थे । कालान्तरमें इन दोनोंमें अनुराग होगया जब गुरु विशालकीतिको यह मालूम हुआ तो उन्होंने समझाने के लिये पत्र लिखे और शिष्योंको भेजा । परन्त मदनकीर्तिपर उनका कोई असर न हआ।" इस प्रबन्धके कुछ आदिभागको यहाँ दिया जाता है उज्जयिन्यां विशालकीर्तिदिगम्बरः । तच्छिष्यो मदनकीर्तिः। स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसष दिक्ष वादिनः सर्वान विजित्य 'महाप्रामाणिकचडामणिः' इति विरुदमपाय॑ स्वगर्वलंकृतामुज्जयिनीमागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रुततत्कीत्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठमश्लाधिष्ठ । सोऽपि प्रामोदिष्ट । दिनकतिपयानन्तरं च गुरुंन्यगदीत-भगवन ! दाक्षिणात्यान वादिनो विजेतुमोहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम्-वत्स ! दक्षिणां मा गाः । स हि भोगनिधिर्देशः । को नाम तत्र गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् । एतद्गुरुवचनं विलंध्य विद्यामदाध्मातो जालकूद्दालनिःश्रेण्यादिभिः प्रभुतैश्च शिष्यैः परिकरितो महाराष्ट्रादिवादिनो मद्ग्रन् कर्णाटदेशमाप । तत्र विजयपुरे कुन्तिभोज नाम राजानं स्वयं विद्यविदं विद्वत्प्रियं सदसि निषण्णं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श । तमपश्लोकयामास...|" इत्यादि । -३४२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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