Book Title: Shasan Chatustrinshika aur Madankirti
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 1
________________ शासन-चतुस्त्रिंशिका और मदनकीर्ति १. शासन-चतुस्त्रिशिका १. प्रति-परिचय 'शासन-चतुस्त्रिशिका' की यही एक प्रति जैन साहित्यमें उपलब्ध जान पड़ती है। यह हमें श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईके अनुग्रहसे प्राप्त हुई।। इसके अलावा प्रयत्न करनेपर भी अन्यत्रसे कोई प्रति प्राप्त नहीं हो सकी। इसकी लम्बाई चौड़ाई १०४६ इंच है। दायीं और बायीं दोनों ओर एक-एक इंचका हाशिया छूटा हुआ है। इसमें कुल पाँच पत्र हैं और अन्तिम पत्रको छोड़कर प्रत्येक पत्रमें १८.१८ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्तिमें प्रायः ३२, ३२ अक्षर है । अन्तिम पत्र में (९+३ = ) १२ पंक्तियाँ और हरेक पंक्तिमें उपर्यक्त (३२. ३२) जितने है। कुछ टिप्पण भी साथमें कहीं-कहीं लगे हुए हैं जो मूलको समझनेमें कुछ मदद पहुँचाते हैं । यह प्रति काफी (सम्भवतः चार-पाँचसौ वर्षकी) प्राचीन प्रतीत होती है और बहत जीर्ण-शीर्ण दशामें है। लगभग चालीस-पंतालिस स्थानोंपर तो इसके अक्षर अथवा पद-वाक्यादि, पत्रोंके परस्पर चिपक जाने आदिके कारण प्रायः मिटसे गये हैं और जिनके पढ़ने में बड़ी कठिनाई महसूस होती है। इस कठिनाईका प्रेमीजीने भी अनुभव किया है और अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' (पृ० १३९ के फुटनोट) में प्रतिका कुछ परिचय देते हुए लिखा है- "इस प्रतिमें लिखने का समय नहीं दिया है परन्तु वह दो-तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती । जगह-जगह अक्षर उड़ गये हैं जिससे बहतसे पद्य पूरे नहीं पढ़े जाते ।" हमने सन्दर्भ, अर्थसंगति, अक्षर-विस्तारकयन्त्र आदिसे परिश्रमपूर्वक सब जगहके अक्षरोंको पढ़ कर पद्योंको पूरा करनेका प्रयत्न किया है-सिर्फ एक जगहके अक्षर नहीं पढ़े गये और इसलिये वहाँपर''ऐसे बिन्दु बना दिये गये हैं । जान पड़ता है कि अबतक इसके प्रकाशमें न आसकनेका यही कारण रहा है। यदि यह जीर्ण-शीर्ण प्रति भी न मिली होती तो-जैन साहित्यकी एक-अनमोल कृति और उसके रचयिता एवं अपने समयके विख्यात विद्वान्के सम्बन्धमें कुछ भी लिखनेका अवसर न मिलता। न मालूम ऐसीऐसी कितनी साहित्यिक कृतियाँ जैन-साहित्य-भण्डारमें सड़-गल गई होंगी और जिनके नामशेष भी नहीं हैं । आचार्य विद्यानन्दका विद्यानन्दमहोदय, अनन्तवीर्यका प्रमाणसंग्रहभाष्य आदि बहुमूल्य ग्रन्थरत्न हमारे प्रमाद और लापरवाहीसे जैन-वाङ्मय-भण्डारोंमें नहीं पाये जाते। वे या तो नष्ट हो गये या अन्यत्र चले गये । ऐसी हालतमें इस उत्तम और जीर्ण-शीर्ण कृतिको प्रकाशमें लाने की कितनी जरूरत थी, यह स्वयं प्रकट है। ग्रन्थ-परिचय 'शासनचतुस्त्रिशिका' एक छोटी-सी किन्तु सुन्दर एवं मौलिक रचना है । इसके रचयिता बिक्रमकी १३वीं शताब्दीके सुविख्यात विद्वान् मुनि मदनकीर्ति हैं । इसमें कोई २६ तीर्थस्थानों-८ सिद्धतीर्थक्षेत्रों और १८ अतिशय तीर्थक्षेत्रोंका परम्परा अथवा अनुश्रुतिसे यथाज्ञात इतिहास एक-एक पद्यमें अतिसंक्षेप एवं संकेत - ३४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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