Book Title: Shasan Chatustrinshika aur Madankirti
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
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काफी प्रसिद्ध रहा है तथा जिनप्रभसूरिके उल्लेखानुसार वह यवन राजाओं द्वारा प्रशंसित और वर्णित भी रहा है । श्रीभानुकोतिने शङ्खदेवाष्टक', श्रीजयन्त विजयने शंखेश्वर महातीर्थ और श्रीमणिलाल लालचन्दने शंखेश्वरपार्श्वनाथ जैसी स्वतन्त्र रचनाएँ भी शङ्खजिनपर लिखी हैं ।
शङ्गजिनतीर्थकी अवस्थितिपर विचार करते हए प्रेमीजीने लिखा है
'अतिशयक्षेत्रकाण्डमें "होलगिरि संखदेवं पि" पाठ है, जिससे मालूम होता है कि होलगिरि नामक पर्वतपर शङ्खदेव या शंखेश्वर पार्श्वनाथ नामका कोई तीर्थ है। मालूम नहीं, इस समय वह ज्ञात है या नहीं।'
जैनसाहित्य और इतिहासको प्रस्तुत करते हुए अब उन्होंने उसमें लिखा है
'लक्ष्मेश्वर धारवाड़ जिलेमें मिरजके पटवर्धनको जागीरका एक गाँव है । इसका प्राचीन नाम ‘पुलगरे' है। यहाँ 'शङ्ग-वस्ति' नामका एक विशाल जैनमन्दिर है जिसकी छत ३६ खम्भोंपर थमी हुई है । यात्री (मुनि शीलविजय) ने इसीको 'शत-परमेश्वर' कहा जान पड़ता है । इस शङ्ख-वस्तिमें छह शिलालेख प्राप्त हुए है । शक संवत् ६५६ के लेखके अनुसार चालुक्य-नरेश विक्रमादित्य (द्वितीय) ने पुलगरेको शंखतीर्थवस्तीका जीर्णोद्धार कराया और जिनपूजाके लिये भूमि दान की। इससे मालूम होता है कि उक्त वस्ति इससे
भी प्राचीन है । हमारा (प्रेमोजीका) अनुमान है कि अतिशयक्षेत्रकाण्ड में कहे गये शंख देवका स्थान यही है । • जान पड़ता है कि लेखकोंकी अज्ञानतासे 'पुलगेरे' ही किसी तरह होलगिरि' हो गया है।'
___ मुनि शीलविजयजीने दक्षिणके तीर्थक्षेत्रोंकी पैदल धन्दना की थी और जिसका वर्णन उन्होंने 'तीर्थमाला' में किया है। वे धारवाड़ जिलेके वङ्कापुरको, जिसे राष्ट्रकूट महाराज अमोघवर्ष (८५१-६९) के सामन्त 'बकेयेरस' ने अपने नामसे बसाया था', देखते हुए इसी जिले के लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ पहुँचे थे और वहाँके 'शंखपरमेश्वर की वन्दना की थी, जिनके बारे में उन्होंने पूर्वोल्लिखित एक अनुश्रुति दी है । प्रेमीजीने इनके द्वारा वणित उक्त 'लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ' पर टिप्पण देते हए ही अपना उक्त विचार उपस्थित किया है और पुलगेरेको शंखदेवका तीर्थ अनुमानित किया है तथा होलगिरिको पुलगेरेका लेखकोंद्वारा किया गया भ्रान्त उल्लेख बतलाया है।
पुलगेरेका होलगिरि या हुलगिरि अथवा होल गरि हो जाना कोई असम्भव नहीं है । देशभेद और कालभेद तथा अपरिचितिके कारण उक्त प्रकारके प्रयोग बहुधा हो जाते हैं। मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा जहाँ प्रकट हुई उस स्थानका तीन लेखकोंने तीन तरहसे उल्लेख किया है । निर्वाणकाण्डकार 'अस्सारम्मे पट्टणि' कहकर 'आशारम्य' नामक नगरमें उसका प्रकट होना बतलाते हैं और अपभ्रंशनिर्वाणभक्तिकार मुनि उदयकीति 'आसरंमि' लिखकर 'आश्रम में उसका आविर्भाव कहते हैं। मदनकीति उसे 'आश्रम वर्णित करते हैं और जिनप्रभसूरि आदि विद्वान् प्रतिष्ठानपुर मानते हैं। अतएव देशादि भेदसे यदि
१. माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसंग्रहमें सङ्कलित। २. विजयधर्मसूरि-ग्रंथमाला, उज्जैनसे प्रकाशित । ३. सस्तीवाचनमाला अहमदाबादसे मुद्रित । ४. सिद्धान्तसारादिसंग्रहको प्रस्तावना पृ० २८ का फुटनोट । ५. 'जैनमाहित्य और इतिहास' पृ० २३६-२३७ का फुटनोट । ६. प्रेमीजी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० २३६ का फुटनोट ।
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