Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 10
________________ ओ३म एक सम्मति (डॉ० दयानन्द भार्गव एम० ए० संस्कृत विभागाध्यक्ष रामजस कालेज दिल्ली) मिट्टी की बहुत महिमा है। प्रत्यक्षत: मिट्टी से ही हमारा जन्म होता है, मिट्टी में हमारी स्थिति है तथा मिट्टी में ही हम अन्तत: विलीन हो जाते हैं। ऐसा आभास होता है मानों मिट्टी ही हम सब की परम प्रतिष्ठा है । परन्तु परमार्थत: मिट्टी स्वाश्रित नहीं, जलाश्रित है। न जल ही स्वाश्रित है, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है। तो क्या आकाश ही परम प्रतिष्ठा है? क्या सब प्राणी अन्तत: आकाश में विलय हो जाते हैं ? आभासत: ऐसा ही प्रतीत होता है, परन्तु परमार्थत: आकाश स्वप्रतिष्ठ नहीं है, वह भी ज्ञानालोक पर प्रतिष्ठित है । इस ज्ञानालोक से ही लोकालोक आलोकित हैं। इस ज्ञानालोक को ही हम सब 'मैं ' की संज्ञा देते हैं। यह 'मैं ' अथवा आत्मतत्त्व स्वयं प्रकाश है, स्वप्रतिष्ठ है। मेरे मानस मे अहर्निश प्रवर्तमान संकल्प-विकल्प सब इसी आत्म-प्रकाश के रूपान्तर हैं। संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थान्तर सब इसी आत्मा के निमित्त ही तो मुझे प्रिय हैं। कितना शान्त एवं सौम्य है मेरा यह चिद्रूप? तनिक अपने मानस में झाँककर देखू । अहो ! कैसा अनोखा संसार बस रहा है मेरे अन्तर में ? मेरे मानस के माँसल कूल (सुदृढ़ किनारे) को विचारों की लहर पर लहर चाटे जा रही है। यह राग, यह द्वेष, यह करुणा, यह शत्रुता, यह मैत्री, यह उत्साह । अद्भुत भावों के सतरङ्गी इन्द्रधनुष मेरे मानसाम्बर में निकले रहते हैं। विचार-वीचिपर विचार-वीचि चली आ रही हैं। क्या एक क्षण के लिए इनकी गति को अवरु किया जा सकता? क्या मैं इन विचार-वीचियों का प्रवर्तक ही हूँ, नियन्ता नहीं हूँ ? अहो ! मानव की असहायता !! इष्टानिष्ट, हिताहित एवं प्रियाप्रिय, जैसे-कैसे भी विचार उसे जिस ओर भी धकेलते हैं वह बेबस उसी ओर चाहे-अनचाहे चल देता है। विचार-वीचि आती है और लौट जाती है, परन्तु वह खाली आती है और न खाली लौटती है। वह अपने साथ कुछ नवीन रजकण लेकर आती है और कुछ पुराने रजकण बहा ले जाती है । व्यष्टि रूप में रजकण बदलते रहते हैं, परन्तु समष्टि रूप में रजकणों की वह परत सदा बनी रहती है। क्या इन रजकणों की मोटी तहके नीचे दबा हुआ आपके मानस का कोमल धरातल कभी इनके भार से छटपटाया है ? ये रजकण नवीन विचार-वीचियों के लिए चुम्बक का काम करते हैं। इन रजकणों की चिर-पिपासा को मानो विचार-वीचियाँ ही शान्त कर सकती हैं। तथा वे विचार-वीचियां इनके निमन्त्रण पर आपके सब निमन्त्रणों को विफल बनाकर उछलती-कूदती नित्य नूतन रजकणों सहित आपके मानस में उतर जाती हैं । जिन रजकणों को ये वीचियां मानस के धरातल पर छोड़ जाती हैं वे रजकण पुन: नूतन वीचियों को बुला लेते हैं । और यह क्रम सदा चलता रहता है। मेरे अन्तर्मन का यह इतिहास कितना रोचक है ? परन्तु इस इतिहास के उर में छिपी हुई एक कसक है, एक टीस है। विचार-वीचियों के निरन्तर नर्तन ने मेरे मन में एक दुःखद ममता, एक रागात्मक भावना उत्पन्न कर दी है । वह ममता धन, पुत्र, कीर्ति और न जाने अन्य किन-किन पदार्थों में व्याप्त हो गई है । सांस उखड़ा हुआ है, होश गुम है, किन्तु फिर भी यह ममता-माया मुझे बेबस दौड़ा रही है । लक्ष्य अज्ञात है, केवल गतानुगतिक न्याय से दौड़ रहा हूँ। इस दौड़ में जो रुके वह पागल है, जो आपसे रुकने को कहे वह मूर्ख है, जो दौड़ से पृथक् होकर एक किनारे पर खड़ा होकर शान्त-भाव से दौड़ को केवल देख रहा है वह निठल्ला है। इनकी ओर ध्यान दिए बिना केवल दौड़ते रहो । स्वेद आये तो पौंछ लो, अश्रु आयें तो रोक लो, ठोकर लगे, रक्त बहे तो पट्टी बांध लो, परन्तु बिना यह पूछे कि जाना कहां है बस केवल दौड़ते रहो। इस दौड़को देखकर हंसना भी आता है और रोना भी । यों तो इस दौड़ में बहुत रस है, आकर्षण है। किन्तु क्या आपके जीवन में ऐसे क्षण भी आये हैं जब यह आभास हुआ हो कि दौड़ निरर्थक है, निरी मूर्खता है, कोरी मृगतृष्णा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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