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प्रकाशकीय
धरती का दो तिहाई हिस्सा जल से आप्लावित होने के बावजूद संसार जल-संकट के भयावह दौर से गुजर रहा है। वस्तुतः अभाव जल का नहीं, पेय जल अथवा शुद्ध जल का है। लगभग दो हजार छह सौ वर्ष पूर्व तीर्थंकर महावीर ने जल-संयम की देशना प्रदान की थी। जैन आगम ग्रंथों में पानी का सचित होना बताया गया है और एक सद्गृहस्थ को पानी के विवेक सम्मत उपयोग का सुझाव दिया गया है। पानी नैसर्गिक रूप से प्राप्त होने वाला एक सस्ता किन्तु अत्यन्त मूल्यवान संसाधन है। अब यह निरन्तर दुर्लभ होता जा रहा है। कहते हैं इस देश में कभी घी-दूध की नदियाँ बहती थीं अर्थात् यहाँ विपुल परिमाण में दूध, दही, छाछ, घी आदि की उपलब्धता रहती थी। छाछ तो बिल्कुल मुफ्त में सहज ही मिल जाती थी। परन्तु अब हालात यह है कि पानी की नदियाँ भी सूखी पड़ी हैं और दूध के भाव पानी बिक रहा है। सिर्फ पानी का करोड़ों का व्यापार खड़ा हो गया है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और अपव्ययकारी जीवन शैली के दुष्परिणाम स्वरूप साधारण आदमी को शुद्ध पानी भी नसीब नहीं हो पा रहा है।
ऐसे विकट समय में त्याग-तप और संयम से अनुप्राणित जैन जीवन शैली एक समाधान देती है। एक जैन श्रमण का जीवन तो त्याग और संयम की पराकाष्ठा होता ही है तथा जैन गृहस्थ का जीवन भी आज के युग में संयममय जीवन जीने की कला सिखाता है। इस संयमित जीवन शैली में जल-संयम भी एक मुख्य आयाम है। स्नान-त्याग और धोवन/अचित्त व छने जल के उपयोग के पीछे जहाँ एक ओर अहिंसा और अध्यात्म की साधना है, वहीं इसमें
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