Book Title: Sanskrit Padyanam Akaradikramen Anukramanika 03
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
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गोमूत्रहरितकीभ्यां गन्धो गोमूत्रहरितकीभ्यां गन्धो गोरक्षी गोपनारी गोरीवंशकरने वननरगोविन्दषड्बिन्दुमुकुन्द - गोविन्दस्तु गवाध्यक्षे
गोविन्दोऽनुयुनक्ति
गोविन्दो वासुदेवश्च, गोशीर्षकं गन्धसारं, गोशीयें रुधिरे युद्धे गोष्टशिष्ट पयःपुष्ट गोष्ठं गोस्थानके गोष्ठी गोष्ठिकभक्तं चोल्लक
गोष्ठीरतिर्दरिद्रश्च
गोसम्भवत्वात्ते मूत्रं, गोससीसूः शतभिषक्
गोस्तनीषु न सितासु गोस्तनो हारभेदे स्याद्गोस्थानं गोष्ठमेतत्तु गौ: सौरभेयी माहेयी गौणं कर्म दुहादीनां गौतमी कौशिकी
गौतमो गणभूर्भेदे गौरं पीतं हरिद्रा,
गीरः स्थूलः कृशा गौरवं पौरवन्द्यत्वात्, गौरवं विभवाजाने, गौरवविशेषयोगाद् गौरवशाखिप्रकाण्डकुठारो
गौरवाय गुणा एव वयस्तत्र
गौरव्या गुरवो मान्या, गौरश्यामतनू तुङ्ग गौरस्यैव ममोपभोगसु गौरागौरातिको परम
वस्कन्दी बन्दीको गौरी काली पार्वती गौरी गान्धारी सर्वास्त्रमहागौरी रूद्रस्य सावित्री, गौरी सती गले यस्य, गौरीसुतश्च हेरम्ब-स्तथा (शा.ना.) ६ गौरोत्तुङ्गपयोधराञ्चलवल- (शृ.ध.) ९५ गौयां दाक्षायणीश्वव (अ.शि.) २२९ गौर्वाणी-बाण-भू(ए.ना.) १३ गौचतुष्पात् पशुस्तत्र ग्याङ्गजाविवराः सुवागरा, (वि.प्र.) १७
(ध.ना.) १६२
"
(सा.शा.) ३।३३ ग्रथितेऽपि हि विज्ञेयं, (अ.सं.) ३।७२९ ग्रन्थः कर्माष्टविधं (नी.श.) ९९ ग्रन्थः सिद्धान्तमुक्तार्थी (अभि.) २।१२९ ग्रन्थकं शिरोऽनादन्तः (अ.सं.) ३।३२३ ग्रन्थकारस्याभिप्रायः (ज.क.) २५
(ध.ना.) ७६ (नि.शे.) २३ (अ.सं.) ३।२८२ ग्रन्थानभ्यस्य तत्त्वार्थं (प्र.चि.) ५।२७६ ग्रन्थान्तरं रत्नाजिवृक्षया (अ.सं.) २।१०४ ग्रन्थाभिचारनिपुणे ( य.कृ.) १७७ ग्रन्थार्थवचनपटुभिः, (मु.श.) २० ग्रन्थार्थान् प्रगुणीकरोति (यो.शा.) आं२७० ग्रन्थावृत्तौ स्वभावे च (आ.सि.) २९ ग्रन्थिं यावद्भवेदा ग्रन्थिका लोभनीया च ग्रन्थिको गुग्गुली दैवज्ञ ग्रन्थिदेशं तु सम्प्राप्ता, ग्रन्थिपर्णे श्लिष्टपणं, ग्रन्थिभेदे यथाऽयं स्याद् ग्रन्थिभेदे यथैवाऽयं ग्रन्धिर्वस्त्रादिबन्धे रुग्भेदे ग्रन्थीन विदारयन्नाभिकन्द ग्रस्तसङ्गररुजां सुभूभुजां, ग्रस्ताः सिंहेन दृष्टा ग्रस्तेषु सैनिकेष्वेषु
ग्रस्यन्ते वज्रसाराङ्गास्तेग्रहं सर्वत्र सन्त्यज्य तद् ग्रहः पूर्णफलो नित्यग्रहः सर्वत्र तत्वेन मुमुक्षू ग्रहणश्लेषणयो: स्याहंशिण (ऋ.श.) १५ ग्रहणाऽऽ सेवनशिक्षाविषये (ऐन्द्र.) २३/३ ग्रहणीग्रन्थिगम्भीरगुल्म(अ. चि) २२३० ग्रहणे चन्द्रसूर्योत्थे (अभि.) २।११७ ग्रहणेऽथोत्थानं सैन्ये (अभि.) २।१५४ ग्रहणेऽपि यदा ज्ञानमुदेत्यु(यो.शा.) १०१ ग्रहणेऽपि शङ्कितो (श्री.त.) २७१८ ग्रहणोद्ग्राहणनवकृति
ग्रहभावप्रकाशाख्यं ग्रहभेदे च प्रतिपादनं ग्रहभोगानुमानेन ग्रहयुद्धे राशिसङ्क्रान्तौ ग्रहराजः शशिन्यर्के
ग्रहशून्येत्वष्टमे स्थाने
(अ. स.) १७११३ (अ.सं.) ३२३६४ (अभि.) ४।३० (अभि.) ४।३३९
(वा. प्र. ) ६६ (अ. चि) २।४७ (अ.सं.) ३।४५७ (ध.ना.) १५१ (स.श) ७०
(ज्ञान.) १२/६
(क. को.) ६७
(षो. प्र)
(त. बो)
(दृष्ट. २)
ग
१४८
६२
५४
(ध.क.) ८७ (प्र.चि.) ७।३०७
(ध.क.) ३७६ (प्र.र.) १४२ (स.प.) १८० (श.र.) ३।५९
( आ. सि. ) ४२४
ग्रन्थकोटीरधीयानास्तन्वाना (प्र.चि. ) ३ ११ ग्रन्थबोधन गर्योमाणं (अ.सा.) ६५ ग्रन्थविस्तरत्यान्य-दुत्सूत्रो- (गु. प्र. ) १८९ (यो. प्र. ) (ज्ञाना.) १६०
१०८
3
८३
ग्रहीष्यन्ति न वा ते ग्रहीष्यमाणग्राहिण ग्रहेषु भास्वानिव कान्ति (ए. द्वा.) ७२२ ग्रहो ग्रहणनिबन्धानुग्रहेषु (तत्त्वा) भा|१।२० ग्रहोपरागे प्रत्याये (अ.सा.) २१।२ ग्रहो विनष्टो यादृक् (अ.सं.) २।२९४ ग्रामं क्षेत्रं वाटिकां (द्वाद्वा.) १५/८ ग्रामं गेहं च विशन् (नि.शे.) २१५ ग्रामं पितृमातृकृषि (अ.सं.) ३।३२ ग्रामः पुरं यौवनवार्ध(यो.शा.) आं८० ग्रामचैत्यं ततो यायाद्वि(नि.शे.) १६७ ग्रामचैत्येजिनं नत्वा (द्वाद्वा.) २०/२२ ग्रामण्यग्रण्यग्रिमजात्या
(यो.वि) ४१६ ग्रामपृच्छासु सर्वेषु (अ.सं.) २२१२ ग्राममद्गुरिका युद्ध(यो.शा.) ७८१ (वि.प्र.) १८ (प्र.चि.) ७।२२२ (प्र.चि.) ७।१५० (द्वाद.) १ (यो.बिं) ३१७
(भा.स.) ६० (मो.) १४८ (क.क.) ३१५ (प्र. वि.) ४ (प्र.चि.) ७।४२१ (त्रै. प्र. ) १२७४ (अ.सं.) ३२३५१ (शा.वा) ६।४६ (च.कृ.) २०७
ग्रहां विडति च वादों ग्रहाः प्रसन्ना वशवर्त्तिनः
ग्रहाः सानुग्रहास्तस्य, ग्रहाः स्युरेन्द्रचाद्यधिपा ग्रहाकै र्भाजिते लब्धग्रहाणामेकम् ग्रहीतुं नाम केनापि
(प्र.र.) ९१ (भु.दी.) १७० (अ.सं.) ५/२८ (1.प्र.)६१६ (त्रै. प्र.) ११७२ (अ.सं.) ४।५४ (त्रै. प्र. )
६३८
ग्राहिका शक्तिकारो (वि.चि.) ११४ (उप) ३।२३७ (न.मा.) ६।४
(आ.सि.) १०९ (.प्र.) १९६२
(तत्त्वा) ४।४९
(दा.प्र.) ७/६९ (दा.प्र.) ७१९० (प्र.मी.) १२११४ (आ.म.) ११८
(अ.सं.) २२५८४
(अ.सं.) ३।१९१ (भु.दी.) ४
(दा.प्र.) ७१३९
(स्त्री. प्र. ) १८
(1.प्र.) १८८
(जै.त.) ३०७
(आ.उ.) ९९
(आ.उ.) १९१
(अभि.) ६४७५
(त्रै.प्र.) ३३७ (अ.सं.) ६१ (आ.म.) ४।३६
(अभि.) ४२९ (प्र.चि.) २२१०६
ग्रामराजिषु कृतान्तरमानग्रामसीमा तूपशल्यं ग्रामस्य ग्रामणीस्तत्रागतो ग्रामाद्यनियतस्थायी, ग्रामाध्यक्षस्ततो वक्ष्यग्रामाध्यक्षो मया प्रोचे ग्रामान्तरोपगतकाग्रामान्तर्वि (र्नि) वसन्तमत्र ग्रामायत्तो ग्रामतक्षः ग्रामाऽऽरामादि मोहाय ग्रामीणेष्विव नागरोऽग्रामे भवे तु ग्रामीणग्रामेय्यां नीलिकायां च
(क.प्र.) १६१
ग्रामो चैकविधे वृष्टिग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा,
(श.र.) ३।१११ (अ.सं.) ३|१९२ (त्रै.प्र.) १२१९ (स.श) ७३ (अभि.) ६५०
ग्रामो विषयशब्दात्रभूते ग्रामौघगोष्ठाधिकृतौ,
(अ.सं.) २।२९० १४
ग्राम्या दुग्धमयान् विलासि (कु. वि) ग्रावा शिलोपलो गण्डशैला (अभि.) ४।१०२ ग्राहकेभ्यो भवन् लाभग्राहको ग्रहीतरि स्याद् ग्राहिका शक्तिराकारो
(प्र.दि. ५/१०३
(अ.सं.) ३।३४ (प्र.ल.) १६
(द्वा.प.) ९ (प्र.चि.) ७।३९५ (प्र.चि.) ७ ३८७
(ए. द्वा.) ८1१ (ऋ.श.) ८ (अभि.) ३३५८२ (ज्ञान.) : ९/३
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