Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ प्रस्तावना महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज के विरचित द्रव्यगुणपर्यायरास आदि द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का जब मैं अध्ययन करता था उसी काल से सम्मतिप्रकरण ग्रन्थ के अध्ययन की लिप्सा अन्तःकरण में जग ऊठी थी चूँकि उपाध्यायजी महाराज के अनेक ग्रन्थों में सम्मतिप्रकरण ग्रन्थ मूल और व्याख्या में से अनेक अंशो का उद्धरण बार बार आते थे । यद्यपि मेरी यह गुंजाईश ही नहीं कि ऐसे बडे दिग्गज विद्वान् दिवाकरसूरिजी महाराज के ग्रन्थ और व्याख्या का विवेचन कर सकूँ। फिर भी जो कुछ हुआ है वह निःसंदेह गुरुकृपा का चमत्कार ही मानना चाहिये । स्वयं उपाध्यायजी महाराज भो श्री सीमंधरस्वामी की स्तवना में कहते हैं जेहथी शुद्ध लहिये सकल नयनिपुण सिद्धसेनादिकृत शास्त्र भावा। तेह ए सुगुरुकरुणा प्रभो ! तुज सुगुण वयण-रयणाकरि मुज नावा ।। अर्थः-हे प्रभो ! आपके गुणालंकृत वचनरूपी समुद्र में तैरने के लिये हमारे पास एकमात्र सद्गुरु की करुणारुपी नौका ही हैं जिससे कि हम सकल नयवाद में निपुण श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी के बनाये हुए सम्मति आदि शास्त्रों के विशुद्ध भावों के किनारे पहुंच सकते हैं । ___वास्तव में, चार अनुयोग में द्रव्यानुयोग की निर्विवाद प्रधानता है, और गृहस्थों के लिये भी द्रव्यानुयोग का अधिकारोचित ज्ञान सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिये आवश्यक माना गया है तो गृहत्याग करके साधु बनने वाले पुण्यात्माओं के लिये तो पूछना ही क्या? उनके लिये तो द्रव्यानुयोग का सांगोपांग अध्ययन परम आवश्यक है, अन्यथा उनका चरण-करण का सार उन्होंने नहीं पाया है। महोपाध्यायजी स्वयं कहते हैं "विना द्रव्य अनुयोगविचार, चरण-करणनो नहीं को सार" (द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास १-२) द्रव्यानुयोग की महिमा के गुण-गान में पू० उपाध्यायजी कितना भार देकर कहते हैं-देखिये, (-द्रव्यगुणपर्यायरास टबा में, ) "शुद्धाहार-४२ दोषरहित आहार, इत्यादिक योग छइ ते तनु कहेता-नान्हा कहिंइ । द्रव्यअनुयोग जे स्व समय पर समय परिज्ञान ते मोटो योग कहिओ।" "ए योगि-द्रव्यानुयोगविचाररूप ज्ञानयोगई जो रंग-असंग सेवारूप लागई-समुदायमध्ये ज्ञानाभ्यास करतां कदाचित् आधाकर्मादि दोष लागइ, तोहि चरित्रभंग न होइ, भावशुद्धि बलवंत छइ, तेण इ. इम पञ्चकल्पभाष्य इं भणि उं।" "द्रव्यादिकनी चिताई शुवलध्याननो पणि पार पामिइ ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 702