Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 13
________________ ८ हालाँकि, इस संस्करण के मुद्रण समय में अध्ययन कर्ता को सम्पूर्ण सुविधा रहे इस बात को ध्यान में रखकर इस संस्करण को अतिसमृद्ध करने के लिये शक्य प्रयास किया है फिर भी जैन मुनि की एक स्थल में चार मास से अधिक स्थिरता प्रायः नहीं होती यह पाठकों के खयाल में ही होगा । इस संस्करण में शामिल किये गये हिन्दी विवेचन के प्रारम्भ से लेकर मुद्रण किये जाने तक करीब १५०० से २००० मील की पद यात्रा हो चुकी है -विहार में आवश्यकता के अनुसार सभी ग्रन्थ संनिहित नहीं रख सकते, इस स्थिति में, इस संस्करण के सम्पादन में अपूर्णता और त्रुटि का सम्भव निर्मूल तो नहीं है । फिर भी पूर्व संस्करण की अपेक्षा इस संस्करण से विद्वानों को अधिक संतोष होगा यह विश्वास है । हिन्दी विवेचन करते समय अनेक स्थलों में बहुविध कठिनता का अनुभव हुआ । क्लिष्टस्थल के स्पष्टीकरण के लिये घंटों तक सोचना पड़ता था, फिर भी स्पष्टता नहीं होती थी, आखिर परमात्मा श्रुतदेवता, ग्रन्थकार - व्याख्याकार और गुरुभगवंत के चरणों में भाव से सिर झुका कर चिंतन करने पर यह चमत्कार होता था कि देर तक सोचने से भी जो स्पष्ट नहीं होता था वह तुरन्त ही स्पष्ट हो जाता था, अथवा तो उसके स्पष्टीकरण के लिये आवश्यक कोई ग्रन्थ अकस्मात् ही कहीं न कहीं से मेरे पास आ जाता था और उसका जिज्ञासा से अवलोकन करने पर किसी आवश्यक विषय में स्पष्टता मिल जाती थी। इतना होने पर भी कुछ दो-चार स्थल ऐसे भी होंगे जिस की स्पष्टता करने में मैं पूरा सफल नहीं हुआ हूं यह मजबूरी की बात है । हिन्दी विवेचन और इस भाग का सम्पादन करते समय परमकृपालु परमात्मा और श्री श्रुतदेवता की करुणादृष्टि सतत मेरे पर बरसती रही होगी, अन्यथा यह कार्य मेरे लिये अशक्य ही बना रहता । एतदर्थ परमकृपालु परमात्मा और श्री श्रुतदेवता के प्रति सदैव कृतज्ञ बने रहना यह मेरा परम कर्तव्य समझता हूँ । अथ च सिद्धान्तमहोदधि - कर्मसाहित्यनिष्णात आचार्य भगवंत स्व. प० पू० श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि के प्रति जितना भी कृतज्ञताभाव धारण किया जाय वह कम ही रहेगा। तदुपरांत, न्यायविशारद उग्रतपस्वी प० पू० आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज मेरे लिये जंगम कल्पवृक्षतुल्य है । उन्हीं की पवित्र छाया में बैठ कर इस विवेचन सम्पादन के लिये मैं कुछ समर्थ बन सका हूँ । तर्कशास्त्र का सुचारु रूप से अभ्यास यह आपकी ही अमीदृष्टि का सत्फल है । प० पू० शान्तमूर्ति स्व. मुनिराज श्री धर्मघोषविजयजी महाराज के शिष्यरत्न, सिद्धान्तदिवाकर, सकलसंघश्रद्धेय आचार्य गुरुदेव श्री विजयजयघोषसूरिजी महाराज का वात्सल्यपूर्ण सहकार इस कार्य में साद्यन्त अनुवर्त्तमान रहा यह मेरा परम सौभाग्य है । अन्य अनेक मुनि भगवंतों का इस कार्य में अनेकविध सहयोग प्राप्त हुआ है जिसको कभी बिसर नहीं सकते । "शेठ श्री मोतीशा लालबाग ट्रस्ट की ओर से ज्ञाननिधि में से इस ग्रन्थ के मुद्रणादि का सम्पूर्ण भार वहन किया गया है, तथा गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, ब्यावर (राज.) के व्यवस्थापक फतहचंद जैन ने इस ग्रन्थ के मुद्रण में जो दिलचस्पी दिखायी है - एतदर्थ ये दोनों धन्यवाद के पात्र है । तदुपरांत लिंबडी ( सौराष्ट्र ) नगर के निवासी जैन संघ श्री आनंदजी कल्याणजी संस्था के ज्ञान भंडार से अमूल्य हस्तप्रत की सहायता मिली यह भी अनुमोदनीय है । ऐसे महान् ग्रन्थरत्न का अध्ययन-अध्यापन द्वारा अधिकृत मुमुक्षुवर्ग आत्मश्रेय सिद्ध करे यही एक शुभेच्छा । वि० सं० २०४० पूना (महाराष्ट्र ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only लि०जयसुन्दर विजय www.jainelibrary.org

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