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प्रथम खण्ड-का० १- प्रामाण्यवाद
रत्नत्रयी कही जाती है, इस रत्नत्रयी को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से उस रत्नत्रयी के धारक यानी निदर्शक अति गम्भीर जिनवचनरूप महासागर का वे अवगाहन करना चाहते हैं किन्तु उसमें अवगाहन करने के उपाय को नहीं जानते उन भव्य जीवों को उपाय का किसी प्रकार भी दर्शन हो जाय तो उनका महान् उपकार सम्पादित हो सके एवं उस उपकारपूर्वक अपनी आत्मा पर भी उपकार होगा ऐसा समझने वाले आचार्य इस सम्मति प्रकरण शास्त्र की रचना में प्रवृत्त होते हैं । मूलकार श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज 'दिवाकर' इस लिये कहे जाते हैं कि इस दूषम *पंचमआरक स्वरूप रात्रि के कारण समस्त लोगों के हृदय में जो भारी अज्ञान व मोहरूप अन्धकार उत्पन्न हो गया है, उस अन्धकार के वे विनाशक हैं, इसलिये यथार्थरूप से 'दिवाकर' नाम प्राप्त किया है । ऐसे श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज जिनेन्द्रदेव के वचनस्वरूप महासागर में अवगाहन करने में उपायभूत सम्मति नाम के प्रकरण की रचना में प्रवर्त्तमान हो रहे हैं । जब 'शिष्टपुरुष कभी इष्ट वस्तु में प्रवर्तमान होते हैं तब पहले अपने इष्ट देवताविशेष की स्तुति पुरस्सर प्रवर्त्तमान होते हैं' इस शिष्टाचार का पालन करने में तत्पर ग्रन्थकार देख रहे हैं कि इष्ट देवता की स्तुति करने से एक उत्कृष्ट शुभ भावस्वरूप प्रचंड जलती हुयी चिराग प्रकट होती है और इस जलती हुयी विशाल चिराग में अतिप्रचुर क्लिष्ट कर्म भी दग्ध हो जाते हैं और इससे आत्मा में एक विशिष्ट शुभ परिणति का प्रादुर्भाव होता है जिससे प्रस्तुत प्रकरण की समाप्ति होने वाली है । तात्पर्य, प्रस्तुत प्रकरण बीच में खण्डित - अपूर्ण न रह कर समाप्ति तक पहुँचने वाला है ।
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अब मूल ग्रन्थ की आद्य कारिका में जिन शासन यानी जिन प्रवचन की स्तुति क्यों की गयी -इसका अवतरण दिखाते हुये व्याख्याकार कहते हैं
मूलग्रन्थकार ऐसे निश्चय पर आये हैं कि शासन यानी प्रवचन अत्यंतस्तुति योग्य है । कारण त्रिभुवन गुरु, निर्मल केवलज्ञान की संपत्ति के स्वामी, श्री तोर्थंकर भगवान के द्वारा (प्रस्तुत ) शासन ( = प्रवचन) के प्रतिपाद्य अर्थ का प्रकाशन करते समय इस शासन की स्तुति की गई है । [ द्रष्टव्यआवश्यक नियुक्ति गाथा - ५६७ ] यह स्तुति भी तीन बात दिखाते हुये की गयी है - [१] अरिहंतो की अर्हता शासनपूर्वक होती है क्योंकि शासन की उपासना करके जिननामकर्म उपार्जित करने द्वारा वे शासन की स्थापना करते हैं । [ २ ] 'लोग = जनसमुदाय पूजित का पूजक होता है' इस न्याय से पूर्व में तीर्थंकर आदि द्वारा शासन की पूजा को देखकर तत्तत्कालीन लोग शासन की पूजा करने लगते
। [ ३) शासन का विनय यह धर्म रूप कल्पतरु का मूल है इस वास्ते उपकारक शासन का विनय यानी स्तवना पूजा अति आवश्यक है । धर्म को यहां कल्पवृक्ष इस लिये कहा कि स्वर्ग-मोक्षादि रूप पुष्पसमूह का, आनंद स्वरूप अमृत रस का तथा उच्चतम कक्षा को प्राप्ति स्वरूप फल का प्रदान करने में धर्म ही समर्थ है - इसलिये वह कल्पवृक्ष है ।
मूल ग्रन्थकार मंगलाचरण में शासन को, वंदना न करके उपरोक्त रीति से शासन के अन्यत्र अप्राप्त असाधारण गुणों की स्तवना करते हैं । कारण, पारमार्थिक यानी तात्विक स्तवना वैसे गुणस्तवनारूप ही होती है। यह अपने दिल में सुनिश्चित रखकर शासन को ही अपने इष्ट देवताविशेष मानकर के उसके पारमार्थिक सिद्ध-व, कुमत - समुच्छेदकत्व एवं अर्हत्प्रणीतत्व इत्यादि शासन
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* जेनमत प्रसिद्ध कालचक्र [Cycle of Time] में अवसर्पिणी काल के छह विभागों में से पंचम विभाग | 15 ( १ ) तप्पुब्विया अरया ( २ ) पूइयपूता य (३) विषयकम्मं च । कयकिच्चो वि जह कह कहए णमए तहा तित्यं ।।
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