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प्रथम खण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद
न च भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति शक्यमभिधातुम् , भाविनोऽसत्त्वेन विज्ञानस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वाऽसम्भवात् ।
B अथ द्वितीयः । तत्रापि कि C गृहीताः स्वोत्पादककारणगुणाः सन्तः प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वं प्रपद्यन्ते D आहोस्विदगृहीताः इत्यत्रापि विकल्पद्वयम् । तत्र D यद्यगृहीता इति पक्षः, स न युक्तः । अगृहीतानां सत्त्वस्यवाऽसिद्धेः सहकारित्वं दूरोत्सारितमेव । अथ C द्वितीयः, सोपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसंगात् । तथाहि-गृहीतस्वकारणगुणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते, स्वकारणगुणज्ञानमपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणपरिच्छेद लक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तते, तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमित्यनवस्थासमवतारो दुनिवार इति ।
___ अथ प्रमाणकारणगुणज्ञानं स्वकारणगुणज्ञानाऽनपेक्षमेव प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तत, तहि प्रमाणमपि स्वकारणगुणज्ञानाऽनपेक्षमेवार्थपरिच्छेद लक्षणे स्वकार्ये प्रवत्तिष्यत इति व्यर्थ प्रमाणस्य स्वकारणगुणज्ञानापेक्षणमिति न स्वकार्ये प्रवर्तमानं प्रमाणमन्यापेक्षम्।
प्रवत्ति के विना अर्थक्रियाज्ञान' रूप संवाद नहीं होगा, संवाद के विना संवाद की अपेक्षा रखने वाला प्रमाण अपने कार्य में प्रवृत्त नहीं होगा इस-प्रकार चक्रक नाम का दोष स्पष्ट लग जाता है ।
यदि आप इस दोष को हटाने के लिये कहते हैं-प्रमाण जब यर्थार्थवस्तुबोधरूप अपने कार्य में प्रवृत्त होता है तब वर्तमान अथवा भूतकालीन नहीं किन्तु भावी संवाद ज्ञान की अपेक्षा करता है इसलिये इस को पूर्ववत्तिता अपेक्षित नहीं है, इसलिये चक्रक दोष नहीं लगता ।-तो यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि भावी पदार्थ विद्यमान न होने से प्रमाणज्ञान को अपने कार्य में प्रवृत्त होने में वह सहकारी नहीं बन सकता।
[ कारणगुण अपेक्षा के दूसरे विकल्प की मीमांसा ] B यदि आप दूसरे विकल्प को स्वीकार करते हैं अर्थात् प्रमाण अपने कार्य में उत्पादक कारणों के गुणों की अपेक्षा रख कर प्रवृत्त होता है-इस प्रकार कहते हैं. तब इस पक्ष में भी नये दो विकल्प उपस्थित होते हैं-C जब उत्पादक कारणों के गुण, प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने में प्रमाण के सहकारी बनते हैं तब वे ज्ञात रहते हैं ? या D अज्ञात ही रहते हैं ? D यदि आप कारणों के गुणों को अज्ञात होते हुए भी सहकारी कहते हैं तो यह पक्ष युक्त नहीं है। जो अज्ञात हैं उनकी सत्ता ही सिद्ध नहीं, अत: जब वे स्वयं ही असिद्ध हैं तब उनके सहकारी बनने की बात ही कहाँ ? अर्थात् वे सहकारी नहीं हो सकते। C यदि आप दूसरे ( वस्तुतः पहले ) पक्ष का अभ्युपगम करके कहें'कारणों के गुण ज्ञात होते हैं, और इसलिये अपने कार्य में प्रवर्तमान प्रमाण के सहकारी हो जाते हैं'-तो यह द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं है। क्योंकि, इस पक्ष को मानने पर अनवस्था की आपत्ति खड़ी होती है । अनवस्था इस प्रकार है- अपने ( यानी प्रमाण के ) कारणगत गुण ज्ञात होने के बाद उनकी अपेक्षा से प्रमाण अपने कार्य में प्रवृत्त होगा और कारणगुणविषयक ज्ञान भी प्रमाण रूप होने से वह अपने उत्पादक कारण गणों के ज्ञात रहने पर ही स्वकार्य में अर्थात् प्रमाणोत्पादककारणगुणयथार्थपरिच्छेद में प्रवृत्त होगा। वह भी कारणगुणज्ञानोत्पादककारण के गुण का ज्ञान होने पर ही स्वका में प्रवृत्त होगा। इस प्रकार अनवस्था के अवतार को नहीं रोका जा सकता।
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