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प्रथमखण्ड-का०-१ प्रामाण्यवाद
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अथापि स्याद्-अर्थनियाज्ञानमर्थाभावे न दृष्टमिति न तत्स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् , साधनज्ञानं तु अर्थाभावेऽपि दृष्ट मिति तत् प्रामाण्यनिश्चयेऽर्थक्रियाज्ञानापेक्षमिति । एतदप्यसंगतम्अर्थक्रियाज्ञानस्याऽपि अर्थमन्तरेण संभवात् , न च स्वप्नजाग्रद्दशावस्थयोः कश्चिद्विशेषः प्रतिपादयितुं शक्यः ।
___ अथ अर्थक्रियाज्ञानं फलावाप्तिरूपत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् , साधनविनिर्भासि पुनर्जानम् नार्थक्रियावाप्तिरूपं भवति, तत स्वप्रामाण्य निश्चयेऽन्यापेक्षम्। तथाहि-जलावभासिनि ज्ञाने समुत्पन्ने पानावगाहनार्थिनः 'किमेतज्ज्ञानावभासि जलमभिमतं फलं साधयिष्यति उतन' इति जाताशंकाः तत्प्रामाण्यविचारं प्रत्याद्रियन्ते, पानावगहानार्थावाप्तिज्ञाने तु समुत्पन्नेऽवाप्तफलत्वान्न तत्प्रामाण्यविचारणाय मनः प्रणिदधति । नैतत् सारम्-'अवाप्तफलत्वात्' इत्यस्यानुत्तरत्वात् । अनवस्था और अन्योन्याश्रय को दूर करने के लिये अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय स्वतः अर्थात् अन्य देत के विना अपने आप होगा ऐसा अगर माना जाय तब तो प्रथम ज्ञान के ही प्रा माण्य के निश्चय को भी स्वत: मानने में द्वेष किस कारण से ? इसी विषय में कहा भी गया है
'जिस प्रकार प्रथम ज्ञान अपने संवाद की अपेक्षा करता है, संवाद को भी इसी प्रकार अन्य संवाद खोजना होगा । यदि किसी एक को स्वतः प्रमाण माना जाय तब तो पूर्वज्ञान के स्वत: प्रमाण होने में आपको द्वेष किस कारण ? ।। पूर्वज्ञान के साथ संवादी होने से उतरकालवर्ती संवाद प्रमाणभूत है ऐसा कह सकते हैं किन्तु यह नहीं बन सकता, क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष होने से अपने प्रामाण्य का निश्चय कराने में समर्थ नहीं है।
[अर्थ के विना भी अर्थक्रियाज्ञान का संभव ] अब यदि आप कहें-अर्थ के अभाव में अर्थक्रियाज्ञान होता है वैसा नहीं देखा जाता, मतलब, अर्थ के होने पर ही अर्थक्रियाज्ञान होता है, अर्थात् वह ज्ञान कभी स्वविषयव्यभिचारी होता ही नहीं है, इसलिए अर्थक्रियाज्ञान अपने प्रामाण्य का निश्चय कराने में अन्य की अपेक्षा नहीं रखता । जब कि अर्थ-क्रिया का कारणभूत पूर्वज्ञान अर्थ के अभाव में भी देखा जाता है, इसलिये वह प्रामाण्यनिश्चय के लिये अर्थक्रियाज्ञान की अपेक्षा करता है । तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि अर्थक्रिया का ज्ञान भी अर्थ के बिना स्वप्नदशा में होता है ऐसा देखा जाता है । आप कहें-"वह ज्ञान तो स्वप्नदशा का और हम जाग्रत् दशा की बात करते हैं कि अर्थ विना अर्थवियाज्ञान नहीं होता है"-तो यह भी युक्त नहीं क्योंकि स्वप्नदशा में और जाग्रतुदशा में होने वाले ज्ञान के स्वरूप में किसी भी प्रकार के भेद का प्रतिपादन शक्य नहीं है क्योंकि स्वप्न दशा में भी जाग्रत् दशा के समान समस्त व्यवहार सच्चा ही प्रतीत होता है । इसलिये स्वप्न दशा का ध्यान रखा जाय तो यह नहीं कह सकते कि अर्थ के विना अर्थक्रियाज्ञान नहीं होता । फलतः अर्थक्रियाज्ञान स्वत: प्रमाणभूत नहीं किन्तु स्वप्रामाण्य निश्चय में अन्य सापेक्ष है यह कहना होगा।
[ अर्थक्रियाज्ञान फलप्राप्तिरूप होने का कथन असार है ] यदि यहाँ कहा जाय कि-अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के फल की प्राप्तिस्वरूप [ यानी फलानुभूतिरूप ] है और फल प्राप्त होने पर किसी को उस फलज्ञान में प्रामाण्य की शंका ही नहीं होती है।
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