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ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिम्यो, ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥ २ ॥ अक्षय पदके बिना फिरा जगत की लख चौरासी योनि में । अष्ट कर्म के नाश करन को अक्षत तुम ढिग लाया मैं ॥ अक्षयनिधि निज की पाने अब देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥
___ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये पक्षतान् निर्वपामोति स्वाहा ॥ ३ ॥
पुष्प सुगन्धी से आतम ने शील स्वभाव नशाया है। __ मन्मथ वाणों से विध करके चहुँ गति दुःख उपजाया है ।।
स्थिरता निजमे पाने को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठि-यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ।। ४ ।। षट्रस मिश्रित भोजन से ये भूख न मेरी शान्त हुई। आतम रस अनुपम चखने से इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई । सर्वथा भख के मेटन को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
___ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमैष्ठिभ्यो, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥