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जैन पूजा पाठ सप्रह
उज्ज्वल हूं कुन्द धवल हूँ प्रभु! पर सेन लगा हूं किंचित्भी। फिर भी अनुकूल लगे उनपर, करता अभियान निरंतर ही॥ जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दवकी खंडित काया। निजशाश्वतअक्षत-निधिपाने, अबदासचरणरजमें आया।
ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निजअन्तरका प्रभु!भेद कहूं, उसमें ऋजुताकालेश नहीं॥ चिंतन कुछ, फिर सम्भाषणकुछ वृत्ति कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊंजो, अन्तर का कालुषधोतीहै।। ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य, कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ अबतक अगणित जड़ द्रव्योंसे,प्रभु!भूख न मेरी शांत हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही। युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूं। पंचेन्द्रिय मन के षट्-रस तज, अनुपम रस पीने आया हूं।
ॐ ही देष शानगुरुभ्य क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा। झंझा के एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा॥ अतएव प्रभो यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूं। तेरी अन्तर लौ, से निज अन्तर, दीप जलाने आया हूँ॥