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डॉ. के. आर. चन्द्र
SAMBODHI ___छन्द की दृष्टि से 'महाप.' का पद्य गाथा छन्द में सही है जबकि 'मूलाचार' के पद्य में उसके पहले पाद का छठा और दूसरे पाद का छठा और सातवाँ गण सही नहीं हैं । द्वितीय पाद में १२ + १५ के बदले में १२ + १७ मात्राएँ हैं। - अर्थ की दृष्टि से 'मूलाचार' के 'जिणवरसहस्स' पद की उपयुक्तता क्या होगी यह समझ में नहीं आता है, अतः ‘महाप.' का पाठ ही समीचीन प्रतीत होता है। २. 'महाप.' के पद्य नं. २ का पाठ इस प्रकार है
सव्वदुक्खप्पहीणाणं, सिद्धाणं अरहओ नमो।
सहहे जिणपन्नत्तं, पच्चक्खामि य पावगं । 'आतुरप्रत्याख्यान' (=आतुरप्र.)के पद्य नं. १७ का भी यही पाठ है। 'मूलाचार' के पद्य नं. ३७ का पाठ इस प्रकार है
सव्वदुक्खप्पहीणाणं, सिद्धाणं अरहदो णमो ।
सद्दहे जिणपण्णत्तं, पच्चक्खामि य पावगं ॥ छन्द की दृष्टि से विश्लेषण
उपरोक्त तीनों ग्रंथों में प्रथम और दूसरे पद की मात्राएँ १४+१४ एवं १३+१३ हैं। अतः यह गाथाछन्द नहीं है । वर्णों की दृष्टि से दोनों पदों में क्रमशः ८+९ और ८+८ वर्ण हैं अतः यह अनुष्टुप् छन्द है। अनुष्टुप् में कभी कभी प्राचीनता की दृष्टि से किसी किसी पद में ८ के बदले में ९ वर्ण भी होते हैं।
भाषिक दृष्टि से विश्लेषण
'महाप.' और 'आतुरप्र.' में 'अरहो, नमो और - पन्नत्तं' शब्दों के प्रयोग हैं जबकि 'मूलाचार' में उनके स्थान पर 'अरहदो, णमो और पण्णत्तं' शब्दों के प्रयोग हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भाषिक दृष्टि से इस पद्य का मूलरूप इस प्रकार रहा होगा
सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहतो नमो ।
सद्दहे जिणपन्नत्तं, पच्चक्खामि य पावगं ।। ___ उपरोक्त सभी ग्रंथों में 'क' का 'ग' (पावगं) मिलता है जो अर्धमागधी भाषा की भी एक लाक्षणिकता है। 'नमो' शब्द का प्रारंभिक 'न' भी प्राचीनता का लक्षण है। इसी प्रकार 'ज्ञ =न' (-पन्नत्तं) भी भाषिक दृष्टि से प्राचीन रूप है और 'ज्ञ = ण्ण' तो महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है। 'अरहओ' और 'अरहदो' शब्द मूल अरहतो' से परवर्ती काल में निष्पन्न रूप हैं। 'अरहदो' शौरसेनी का तो 'अरहओ' महाराष्ट्री प्राकृत का रूप है।
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