Book Title: Samaysara
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ प्रस्तुत कृति में समयसार की क्रमबद्ध व्याख्या नहीं है। उसके कुछेक पद्यों के हृदय का स्पर्श किया गया है। आज का पाठक भाषा और परिभाषा की जटिलता से मक्त रहकर जानना चाहता है। परिभाषा से मक्त भाव की अभिव्यक्ति के लिए व्यापक दृष्टिकोण, उदार भावना और गहरी डुबकीये सब आवश्यक हैं। बहुत विद्वानों ने आचार्य कुन्दकुन्द को निश्चय नय की सीमा में आबद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका दृष्टिकोण संकुचित है, यह कहना मैं नहीं चाहता किन्तु अनेकान्त की सीमा का अतिक्रमण कर रहा है, यह कहने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती। आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार, दोनों नयों को उनकी अपनी अपनी सीमा में अवकाश दिया है। केवल सूक्ष्म पर्याय ही सत्य नहीं है, स्थूल पर्याय भी सत्य है। हमारा व्यवहार स्थूल पर्यायों के आधार पर आकलित होता है। क्या सत्य के एक पहलू को नकार कर असत्य को निमंत्रण नहीं दिया जा रहा है? इस विषय पर विमर्श आवश्यक है। प्रस्तुत कृति में कुछ बिन्दुओं पर सहज-सरल विमर्श हुआ है। यह चिन्तन के नए बिन्दओं को रेखा में रूपायित करने का एक छोटा-सा प्रयत्न है। यह प्रयत्न कभी विशद और व्यापक रूप ले सकता है। मुनि दुलहराज जी साहित्य संपादन के कार्य में प्रारंभ से ही लगे हुए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजय कुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। ९ अप्रैल ९१ ग्रीन हाऊस, सी- स्कीम, युवाचार्य महाप्रज्ञ जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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