Book Title: Samaysara Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ प्रस्तुति चेतना के अनेक स्तर हैं। मोह से प्रभावित चेतना पदार्थ में आसक्त होती है। आसक्ति चेतना के एक स्तर का निर्माण करती है। उसका नाम हैबहिआत्मा, बाह्य विषयों में उलझी हुई चेतना। मोह का विलय या उपशमन चेतना के दृष्टिपक्षीय स्तर का निर्माण करता है। उसका नाम है अन्तर्- आत्मा। चेतना की गति बदलती है, वह बाहर से भीतर की ओर हो जाती है। मोह के विलय या उपशमन की मात्रा और अधिक बढ़ती है तब चेतना के चरित्रपक्षीय स्तर का निर्माण होता है। उसका नाम है परम-आत्मा। यह कथनी और करनी की दरी की समाप्ति का आरंभ-बिन्द समय का अर्थ है आत्मा। उसका सार है-बहिरात्मा का अतिक्रमण कर अन्तरात्मा और परमात्मा की दिशा में प्रस्थान करना। यह प्रस्थान ही अध्यात्म है। आचार्य कुन्दकुन्द अध्यात्म के महान् प्रवक्ता और मार्गदर्शक हैं। उनका मार्गदर्शन "समयसार" में प्रतिबिम्बित या प्रतिध्वनित हो रहा है। समयसार अध्यात्म का प्रतिनिधि ग्रंथ है। विश्व साहित्य में अध्यात्म विषयक जो ग्रन्थ हैं, उनमें प्रथम पंक्ति के ग्रंथों में से एक है। इसकी गहराइयों तक पहुंचना सरल नहीं है। कठिन को सरल बनाना अपेक्षित है। परानी भाषा और परिभाषा को नया संदर्भ मिले तो वह सहज सगम्य या सुपाच्य हो सकती है। प्रस्तुत कृति में इसका एक निदर्शन मिलेगा। - ईस्वी सन् १९८७ में एलाचार्य विद्यानंद जी अणुव्रत भवन में आए। वे दिल्ली से प्रस्थान कर दक्षिण की यात्रा के लिए जा रहे थे। आचार्य श्री के साथ वार्तालाप हो रहा था। उन्होंने कहा- आचार्य कुन्दकुन्द की द्विसहस्राब्दी मना रहे हैं। उस समय समयसार पर कुछ लिखा जाए। उनकी इस भावना को आचार्यवर ने स्वीकार किया। उस स्वीकृति की निष्पत्ति है प्रस्तुत कृति – समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 178