Book Title: Samayik se Samta ka Abhyas
Author(s): Hirachandra Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 5
________________ जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 | चुका है। संकल्प, आदत, स्वभाव और संस्कार के क्रम से मानव जीवन को ध्येय की ओर ले जाने में शिक्षाव्रत बहुत ही सहायक बनते हैं। भारतीय संस्कृति में मंत्र-जप-ध्यान आदि श्रेष्ठ कार्यों के लिये पूर्व तथा उत्तर दिशा उत्तम मानी गई है। स्थानांग सूत्र एवं विशेषावश्यक भाष्य में भी शास्त्र, स्वाध्याय एवं दीक्षा प्रदान तथा सामायिक, प्रतिक्रमण आदि 13 श्रेष्ठ कार्य एवं धर्म क्रियाएँ पूर्व या उत्तर दिशा की ओर बैठकर करने का विधान है। पूर्व दिशा जहाँ उदय पथ, प्रगति एवं क्रान्ति की सूचक है, वहाँ उत्तर दिशा दृढ़ता व स्थिरता की सूचक है। दिशा का ध्यान रखते हुए सामायिक में सिद्धासन, पद्मासन या पर्यंकासन से बैठना चाहिये। मेरुदण्ड सीधा, स्फूर्तिमान तथा मन एवं इन्द्रियाँ अडोल रहें, ऐसा प्रयास अपेक्षित है। निरन्तर और विधिपूर्वक की गई क्रिया ही सफलता की सूचक है। भगवान महावीर का सिद्धान्त ही कडे माणे कडे' है। अतः वीतरागता का ध्येय बनाकर साधना के समरांगण में कूद पड़ो। क्या कभी दीपक ने ऐसा रोना रोया कि मेरे पास इतने टन तेल हो, इतने किलो रूई हो, इतना बड़ा आकार हो, तब ही मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर इतने अंधकार से लड़कर पूर्ण प्रकाश कर सकूँगा। दीपक को ऐसे निकम्मे, बेकार शेखचिल्लियों के से मनसूबे बांधने की फुरसत नहीं है। आप सब दीपक से शिक्षा लेकर शिक्षाव्रतों का प्रश्रय लेकर गुणवर्धन का लक्ष्य रखें। तीर्थेश प्रभु महावीर ने दिशा के साथ भाषा का जो अनमोल स्वरूप दिया वह भी स्तुत्य है। जनसाधारण के मध्य सहज-सरल बोले जाने वाली समझ में आने वाली अर्द्धमागधी भाषा में आगम वागरणा का सूत्र दिया। आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि सामायिक साधना देश के किसी भी कोने में हो रही हो या धर्मी भक्त-जन विदेशों में कर रहे हों, उन सबकी भाषा व विधि एक जैसी है। जैन धर्म के साधकों में एकरूपता वाली सामायिक साधना की यह अनूठी मिशाल विशिष्ट पहचान की द्योतक है। जैन आगमों में सामायिक को छः आवश्यकों में पहला आवश्यक कहा है। ग्यारह अंगों के ज्ञान में (सामाइयमाझ्याहिं एकारस अंगाई) कहकर सामायिक को ज्ञान का सबसे पहला अंग कहा है। श्रावक के शिक्षाव्रतों में भी इसे पहला शिक्षाव्रत कहा है। श्रावक का धर्म अगार है, पाँच अणुव्रतों को स्वीकार कर श्रावक ने महापाप का त्याग किया, हिंसा आदि आस्रवों का आंशिक त्याग किया, तीन गुणव्रतों के द्वारा क्षेत्र की सीमा करने के साथ, उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का परिमाण कर अनर्थ के पाप छोड़े, किन्तु इन सबके बावजूद इस त्याग वृत्ति में स्थायित्व तभी आयेगा, जब वह आत्मस्वरूप का भेदविज्ञान' कराने वाली सामायिक की आराधना करे, इसीलिये शिक्षाव्रत का उपदेश है। आचार्य हरिभद्र ने-“साधुधर्माभ्यासः शिक्षा" अथवा "पुनःपुन परिशीलनम् अभ्यासः शिक्षा' शिक्षा का अर्थ करते हुए कहा- जो सद्धर्म की शिक्षा दे, ध्येय की प्राप्ति में विशेष सहायक हो और जिसका बार-बार पालन किया जाय उसे शिक्षाव्रत कहते हैं। सामायिक की दो प्रमुख शिक्षाएँ हैं1. पर प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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