Book Title: Samayik se Samta ka Abhyas Author(s): Hirachandra Acharya Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 180 सामायिक से समता का अभ्यास आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा. सामायिक श्रमण-श्रमणी का प्रथम चारित्र है तथा श्रावक-श्राविका के लिए एक शिक्षाव्रत । सामायिक-साधना जीवन में समत्व के अभ्यास की साधना है। आचार्यप्रवर ने अपने प्रवचन में सामायिक-साधना पर जो प्रवचन फरमाया है वह श्रावक-श्राविका के लिए तो उपयोगी है ही, श्रमण-श्रमणियों के लिए भी इसकी उपादेयता है, क्योंकि सामायिक में आर्त एवं रौद्र ध्यान का त्याग किया जाता है तथा समस्त सावद्य क्रियाओं से बचकर समता में रहने की साधना की जाती है। -सम्पादक आत्म-स्वभाव में रमण करने वाले सिद्ध भगवंतों, आत्मिक गुणों का विकास करने वाले अरिहंत भगवन्तों, साधना से गुणों की ओर बढ़ने वाले संत भगवंतों को कोटिशः वन्दन । . आत्म-स्वरूप की ओर उन्मुख करने वाली साधना का नाम 'सामायिक' है। सामायिक साधना की ओर चरण बढ़ाने से पूर्व इसकी पृष्ठभूमि को समझ लेना उचित लगता है। जैसे- वट वृक्ष ऊपर में जितना विशाल दिखता है, भीतर में उतना ही दूर तक फैला हुआ होता है, जड़ें जितनी गहरी, वृक्ष उतना ही विशाल। इसी तरह मनुष्य की आस्था, श्रद्धा, मान्यता, विचारधारा जितनी दृढ़ होगी, आचार का वटवृक्ष तथा सद्गुणों के फल-फूल उतने ही अधिक लगेंगे। समय आने पर वटवृक्ष के पत्ते जरूर झड़ते हैं, पर तनों से बहती रसधारा उसे फिर हरा-भरा कर देती है, इसी तरह विपत्तियाँ या प्रतिकूलताएँ मनस्वी मनुष्यों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती, किन्तु समभाव से उन्हें सहन करने पर वे उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देती हैं। इस प्रकार सद्गुणों के मूल को सींचने वाली साधना सामायिक है। जैसे आकाशसभी द्रव्यों का, पृथ्वी सभी जीवों का, दया सभी धर्मों का आधार है, वैसे ही सामायिक सभी गुणों का भाजन है, आधार है। समता के सहारे ही जीव में सभी गुण या धर्म टिकते हैं। जैसे-अंधेरे में बड़ेबड़े सुनसान महल और किले अटपटे और डरावने लगते हैं वैसे ही आत्मिक भाव, आत्म-विकास के बिना ये ऐश्वर्य और वैभव भी ईर्ष्या, द्वेष एवं लड़ाई के साधन बन जाते हैं। तीर्थंकर भगवान महावीर, गौतम बुद्ध और चक्रवर्ती भरत आदि महापुरुषों के पास रमणियाँ, राजपुत्र, अतुल सम्पत्ति, सुन्दर भव्य भवन, एकछत्र राज्य आदि मन बहलाने के बड़े-बड़े साधन थे, किन्तु उन्हें ये सब अटपटे एवं डरावने लगे और एक दिन वे इन वैभव-विलासों को छोड़, ममत्व को तोड़, आत्मविकास के उज्ज्वल पथ सामायिक या समता भाव की ओर बढ़ चले। आगमवचन सत्य है कि सामायिक व्रत स्वीकार न करने पर श्रावक को अपने जीवन के लक्ष्य का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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