Book Title: Samayik se Samta ka Abhyas
Author(s): Hirachandra Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 9
________________ [1887 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | दानदाताओं के नाम से भरी हुई दीवारों वाले स्थानक बनाये जा रहे हैं, जो साधना के लिए उचित नहीं हैं। धर्मस्थान परिग्रह का स्थान नहीं बनना चाहिये। कारण कि क्षेत्र भी समता की साधना में सहयोगी होता है। एकएक क्षेत्र का ऐसा प्रभाव है कि वहाँ गाय और बैल जैसे जानवर भी शेर का मुकाबला करते हैं। मात्र टीले पर बैठने से छोटे बालक भी ज्ञानियों, अनुभवियों जैसा न्याय कर देते हैं। साधक जहाँ साधना करते हैं वहाँ शेर, हिरण भी वैर भूलकर एक साथ बैठते हैं, इसके विपरीत लबान जैसे क्षेत्र में श्रवण जैसे भक्त को भी माता-पिता से श्रमदान मांगने की कुमति जग जाती है। आचार्य भगवंत (पूज्य हस्तीमल जी महाराज) के श्री चरणों में जोधपुर से आगोलाई जाने का प्रसंग बना। एक स्थान पर जहाँ सैनिकों का बारूद रखा हुआ था, बम आदि विस्फोटक पदार्थ थे वहाँ उनकी सुरक्षा हेतु अग्नि का समारम्भ तो दूर, धूम्रपान भी निषिद्ध था। हमारे भीतर भी कषायों का बम और विषयों का बारुद भरा हुआ है। अतः घर में आरम्भ-समारम्भ वाले स्थान से बचकर विशुद्ध क्षेत्र जहाँ चित्त में चंचलता नहीं आती हो, विषय विकार नहीं जगते हों, कोलाहल से मन चञ्चल नहीं बनता हो, ऐसे समभाव के क्षेत्र उपादेय हैं, ऐसे स्थान पर सामायिक करनी चाहिये, कारण कि-समभाव की साधना करने वाले साधक को समाधि में सहायक क्षेत्र की आवश्यकता रहती है, जैसे- जब तक निर्भय होकर उड़ना नहीं आता, चिड़िया एवं कबूतर के बच्चे को घोंसलें में रखा जाता है, लालटेन की लौ को काँच लगाकर रक्षण किया जाता है, ब्रह्मचर्य पालन हेतु नववाड़ से उसका रक्षण किया जाता है, अमूल्य रत्नों को तिजोरी में रखा जाता है, रोगी को निरोग करने के लिये पथ्य का पालन करवाया जाता है और विद्यार्थी भी चौराहे पर बैठने के बजाय एकान्त में बैठकर विद्यार्जन करता है, इसी तरह समभाव की साधना करने वाले साधक को निरवद्य, शान्त स्थान में रहना आवश्यक है। सुना है, जिसे साँप डस गया हो, उसे मन्त्रोपचार एवं औषधियों से निर्विष बनाये जाने के बाद भी जब बादल आते हैं तो विष जोर पकड़ता है, व्यक्ति में पागलपन उत्पन्न होता है, कभी वह मूर्च्छित भी हो जाता है, वैसे ही गृहस्थी के घर में पारिवारिक जनों के संग में अर्थात् आरम्भ और विषय-कषाय के स्थान में सामायिक करने वाले साधक के मन में विषय विकार जगते हैं, मोह जगता है और वह भी समभाव से अस्थिर हो पागलपन करने लग जाता है, अतः क्षेत्र-शुद्धि आवश्यक कही गई है। शान्त, एकान्त स्थान से शास्त्रकारों का अभिप्राय है कि धर्म का बीज, हृदय का खेत, बोने वाले सद्गुरु एवं स्वाध्याय की खाद, इतना होने पर भी यदि समभाव का अंकुर नहीं लगता है तो यही समझना चाहिये कि हृदय के खेत की भूमि अर्थात् साधना का क्षेत्र विपरीत है। आगमों के अन्तर्गत सामायिक की साधना को श्रेष्ठतम साधनाओं में माना है। महिमा बताते हुए कहा है दिवसे दिवसे लक्खं देइ, सुवण्णस्स खंडियं एगो। एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुप्पट तस्स ।। लक्ष मुद्राओं का दान एक सामायिक की समानता नहीं कर सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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