Book Title: Samayik se Samta ka Abhyas
Author(s): Hirachandra Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 11
________________ 190 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || ली जाती है, वैसे ही राग और विकारों की दशा में शान्ति व मुक्ति (छुटकारा) पाने के लिये सामायिक की आराधना आवश्यक है। मन के बाहर जाने का सबसे बड़ा कारण राग है, इसलिये इसे कम करो, राग कम करने का उपाय भी है- "बाहरी पदार्थों को अपना मानना छोड़ दीजिये।" आप में से कौन-कौन ऐसा साहस वाला है, जिनका मन पर नियंत्रण है? जिनका मन नियन्त्रित है, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में आकर्षित नहीं होती। मन यदि सधा हुआ है तो आपको जैसा जितना मिलेगा, उसी में संतोष कर लोगे। मात्र तन और वाणी से तो क्रिया होती रहे और मन कहीं अन्यत्र भटकता रहे तो उसे द्रव्य क्रिया समझिये। मानसिक दुर्बलता से ही मनुष्य सांसारिक पदार्थों की ओर खिंचता है, गाँठ बांधकर रखिए। अस्थिर मन से सामायिक व्रत की बराबर साधना नहीं होती। जिनके मन के विकार निकल गये, गुरुदेव ने उनको श्रमण व सुमन कहा है। मन के विकारों का वेग सबसे तीव्रतम होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक सैकण्ड में प्रकाश की गति 1,80,000 मील, विद्युत की 2,88,000 व विचारों की गति 22,65, 120 मील तक है। इस मन को पाँचों इन्द्रियों का राजा कहकर सम्बोधित किया गया है। यह आकर्षण-विकर्षण, इष्ट-अनिष्ट, योग्य-अयोग्य, कार्य-अकार्य में भेद समझे बिना उनमें लिप्त या रचा-पचा रहता है। लोभ और अज्ञान मानसिक चंचलता को बढ़ाने वाले हैं। इस चंचलता को घटाने के लिये मन की दिशा को बदलने के लिये एकाग्रता से सामायिक कीजिये। मन बदल जाता है तो जीवन बदलते देर नहीं लगती। मन-वचन-काय योग की शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्मों का बंध होता है। सामायिक और स्वाध्याय की ललक व अभ्यास विषम भावों से हटाकर मन को समभाव की सरिता में अवगाहन का अवसर प्रदान करते हैं। देव, गुरु एवं धर्म की अविनय आशातना नहीं करते हुए भक्तिभाव पूर्वक यदि सामायिक की साधना की जायेगी तो अवश्य ही मन की शुद्धता बढ़ती जाएगी। (2) वचन शुद्धि- मन एक गुप्त एवं परोक्ष शक्ति है, परन्तु वचन शक्ति तो प्रकट है। उस पर प्रत्यक्ष अंकुश लगाकर हिताहित परिणाम का विचार कर ही बोलना चाहिए। वाणी का संयम, तन का संयम, मन का संयम ही हमारी आत्मशुद्धि में सहायक होता है। गुरुदेव के शब्दों में-“विचार की भूमिका पर ही आचार के सुन्दर महल का निर्माण होता है।" अतः साधक का कर्तव्य है कि वह सामायिक काल में सामायिक व्रत की स्मृति रख वचन को गुप्त रखने का पूरा विवेक रखे- वचनों को गुप्त रखने का आशय- “कुवयण, सहसाकारे, सच्छंदं, कलहं च। विगहा, विहासोऽसुद्धं निरवेक्खो मुणमुणा दोसा दस" से है। क्रोध-मान-माया-लोभ के वशीभूत हो अतिशयोक्तिपूर्ण, चापलूसी भरे, दीन व विपरीत अप्रियकारी वचनों का वर्जन कर स्वाध्याय में रत रहेंगे, तो वचन शुद्धि बनी रह सकेगी। तन का संयम रोग से और वाणी का संयम कलह से बचाता है। संसार की समस्त वस्तुएँ बनने पर विनष्ट हो जाती हैं, किन्तु उत्तम जीवन एक बार बना लिया तो वह विनष्ट नहीं होता। इसके लिये शारीरिक और वाचिक संयम आवश्यक है। यदि इन दोनों पर संयम कर लिया तो मन आसानी से साधना की ओर उन्मुख हो जायेगा। मौन साधना, कम बोलना, आवश्यकता होने पर थोड़े शब्दों में नाप तोलकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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