Book Title: Samayasara Author(s): Dhanyakumar G Bhore Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 2
________________ श्री समयसार २३ विषय का हार्द समझना असंभव है । इसीलिए स्वयं आचार्य ने ग्रन्थ में वर्णित प्रमेय के स्वीकार करने के पूर्व स्वानुभव प्रमाण के द्वारा परीक्षा करने के लिए विश्वासपूर्वक कहा है कि स्वानुभवप्रत्यक्षेन परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम् । इस एकरूप शुद्ध आत्मा का स्वरूप ग्रन्थकारने गाथा ६ में कहा है । णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंती सुद्धं जो णाओ सो उ सो चेव ॥६॥ यह इस ग्रन्थ की प्राणभूत गाथा है । यह जीवात्मा अनादि बन्ध पर्याय की अपेक्षा से संसार की नाना अवस्थाओं में विविध पुण्य पापमय शुभाशुभ भावों से परिणत होता है फिर भी वह ध्रुव-ज्ञायक भाव स्वभाव की अपेक्षा से उन पुण्यपापरूप भावों से परिणत न होकर एकरूप ही है । इस प्रकार यह ध्रुवज्ञायक स्वभाव सम्पूर्ण परद्रव्य, परभाव और परसापेक्ष विकारी भावों से भिन्नस्वरूपण अनुभव में आता हुआ जिस समय यह जीव अपनी श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के लिए आश्रय बनता है उस समय वह उपास्यमान आत्मा 'शुद्ध' कहा जाता है। किचड से कर्दम से संयुक्त होनेपर भी जल अपने स्वभाव से निर्मल ही है इसी तरह अपनी पर्याय में अशुद्धता होते हुए भी जीव का अपना त्रिकालीज्ञायक ध्रुवस्वभाव विद्यमान होता ही है। जहाँ स्थूलदृष्टि अज्ञानी को उसकी मलीनता का और संयोग मात्र का प्रतिभास होता है, वहाँपर स्वभाव का लक्ष्य करने वाले विवेकी ज्ञानी को असंयोगी शुद्ध स्वभाव का अनुभव होता है, साक्षात अनुभूती होती है, यही कारण है कि अज्ञानी की जीवनी पर्यायों में सीमित होती है, उसका श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप जीवन-प्रवाह क्षणिक विकारों की सीमा में ही प्रवाहित होता रहता है । विकारों से वह सदाही तन्मयता को प्राप्त होता है । और ज्ञानी की दृष्टि व्यापक होती है पर्यायों में सीमित नहीं होती। विकारों को बराबर जानता हुआ, अपने त्रैकालिक ध्रुवस्वभाव का अवलंबन करता हुआ उसी को अपनी श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का आधार बनाता हुआ तन्मयता को प्राप्त होता है। यही शुद्ध आत्मा की उपासना है। यह आत्मा उस समय ज्ञेयाकार के निमित्त से ज्ञायक कहा जाता है फिर भी वह ज्ञेयों के कारण न ज्ञायक है और न ज्ञेयों के कारण मलिन ही है । उस समय ज्ञायक रूप में अनुभव में आया हुआ वह भाव तो वह ही है। ऐसा जो कहा गया है वहां वह अपने निजी सम्पूर्ण गुणों के प्रतिनिधित्व रूप में स्वीकृत है । मोक्षसाधनभूत ज्ञायकस्वभाव सम्पूर्ण विकार और विकारों के लिए हेतुभूत कर्मों से रहित अत्यंत स्वाभाविक शुद्ध एकरूप अपनी निजी अवस्था की प्राप्ती यही जीव मात्र का अंतिम ध्येय है, वही सुख निधान है, वही परमात्म पद है, उसे ही मोक्ष कहते है। उसके प्राप्ति का उपाय (अवलंबनभूत-पदार्थ-वस्तु) कौनसा है ? इस मूलभूत समस्या को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस ग्रंथ के माध्यम से ठीक ठीक सुलझाया है। यद्यपि अन्य सिद्धजीव यह दृष्टांत के रूप में प्रतिबिम्ब के रूप में है फिर भी उनकी सत्ता स्वतंत्र होने से भिन्न वस्तुस्वरूप सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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