Book Title: Samayasara
Author(s): Dhanyakumar G Bhore
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 11
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ के सन्मुख पर ही होती है । भावार्थ यह है कि, शुद्ध नय से आस्रव तत्त्व की हेयरूप से प्रतीति: वास्तव में आत्मानुभूती है । और वही सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग है । ३२ संवराधिकार । उपयोगस्वरूप आत्मा और क्रोधादि ये स्वभावतः भिन्न है क्यों कि शुद्ध आत्मानुभूति में क्रोधादिकों का अनुभव नहीं होता और क्रोधादिकों की अनुभूति में शुद्ध आत्मा की अनुभूति नहीं होती । इस प्रकार एक भेदज्ञानही से जीव तत्क्षण आस्रवों से निवृत होता है उसे स्वरूप प्राप्ति होती है और नूतन कर्मों को रोकता है इसी समय यथा संभव गुप्ति-समिति आदि सविकल्प भूमिका में होते हैं प्राणभूत भेदविज्ञान के ये परीकर है सहचर है । जिसने रागादिकों से आत्मा को पृथक अनुभव किया उसने कर्म नोकमों से भी आत्मा को भिन्न ही किया । क्यों कि कर्म - नोकर्मों को आस्रव का कारण रागादिक वहाँ पर नहीं होते हैं । संवर का कारण आत्मानुभूति विद्यमान होने से अपूर्व संवर स्वयमेव होता है इसलिए भेद विज्ञानपूर्वक आत्मानुभूति यह ही एक मात्र ' संवर तत्त्व ' है । तात्पर्य शुद्ध नय से संवर तत्र का जानना ही आत्मानुभूती है। निर्जराधिकार । भेदविज्ञानी शुद्ध आत्मतत्त्व का स्वीकार करता है तो है । किन्तु उदयरूप फल में रागद्वेषमोह के कर्म बिगर बांधे खिर जाते है । इसीको द्रव्य निर्जरा कहते है है, यही भाव अज्ञानी को राग के कारण बन्ध का किन्तु सम्यग्दृष्टि को उन सुखदुखों में राग न होने से का अभाव या आत्मानुभूति ही भावनिर्जरा है । पूर्वबद्ध कर्म नियमानुसार यथाक्रम उदय को अभाव से वे कर्म उदीर्ण होकर वैसा नया सुखदुःख भी अवश्य ही होते निर्जरा न होने के समान है । निर्जरित होता है । यहां राग 1 उदय से हेतु होने से वास्तव में बन्ध न होकर मात्र सम्यग्दृष्टि को भोग पूर्व कर्मोदय के कारण अवशता से प्राप्त होता है । इसलिए वह उस में रिझता नहीं । राग के अभाव में ज्ञानी को वह उपभोग बन्ध के लिए नहीं प्रत्युत निर्जरा का हेतु बनता है । बन्ध तो उन में रागद्वेष होने पर ही होगा । इस लिए ज्ञानी के बाह्य में विषय भोग दिखाई देने पर भी वह अभिप्राय में उनके प्रति निर्मम है तथा उसे उनके भोगों के सुखदुःखरूप फलों की आकांक्षा भी नहीं होती । जो फलकी अभिलाषा ही नहीं करता वह कर्म को करता है यह तो प्रतीतिविरोधी बात है । सम्यग्दृष्टि दुनियाकी दुकानदारी का मुनिम होकर व्यवहार करता है, मालिक बनकर नहीं । उसे उनमें हर्षविषाद नहीं। वह ऐसा कर्मोदय का भोग है जिसे टाला नहीं जा सकता किन्तु ज्ञानवैराग्य से उसमें कर्मबंध का जो विष है उसकी शक्ति नष्ट की जा सकती है । Jain Education International ज्ञानी स्वेच्छा से रुचिपूर्वक विषयभोगों में परिग्रहों में रिझता नहीं यदि वह उनमें रमता है तो वह ज्ञान से च्युत होकर, रागी बनकर कर्मबंध ही करेगा । वास्तव में ज्ञानी को रागद्वेषमोह में ममत्व का अभाव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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