Book Title: Samayasara Author(s): Dhanyakumar G Bhore Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 1
________________ श्री समयसार पं. धन्यकुमार गंगासा भोरे, बी. ए., एलएल्. बी. जैन साहित्य और जैन संस्कृति के ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द की मुद्रा टंकोत्कीर्ण अंकित है। 'समयसार' यह कुन्दकुन्द साहित्य में शिरोरत्न की तरह कांतिसंपन्न ग्रंथरत्न है। वह अध्यात्म साहित्य का आदिस्रोत है और सम्पूर्ण जैन साहित्य के लिए मानदण्ड भी है। 'आत्मा का शुद्धस्वरूप' यह पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार और समयसार सार-त्रयीका तो लक्ष्यबिन्दु है ही किन्तु समयसार का वह केन्द्र बिन्दु है। वही समयसार का एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। ग्रंथ की गाथाएँ ४३५ हैं जिनपर आचार्य अमृतचंद्र की विख्यात आत्मख्याति तथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नाम की टीकाएँ है । 'समय' का व्युत्पत्यर्थ जो एकसाथ (युगपत् ) अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त होता है और जानता है ऐसा 'आत्मा' होता है। आत्मतत्त्व अपने कालिक चैतन्य स्वभाव की अपेक्षा से एकरूप अतएव सर्वाङ्गसुन्दर होनेपर भी आत्मा अपने ही प्रज्ञा के अपराध के कारण इस ध्रुव चैतन्यस्वभाव को भूला हुआ है और परसापेक्ष नैमित्तिक भावों में-अहंकार, ममकार में तथा रागद्वष मोहादि विभावों में तन्मयता को प्राप्त है। यह बन्ध कथा आत्मा की एकरूपता के लिए सुसंवादी नहीं है, पूर्णरूपेण विसंवादी है। फिर भी यह बन्धकथा सम्पूर्ण जीवों को परिचयप्राप्त है और अनुभवगम्य है। केवल अल्पज्ञ और अज्ञानी ही इस से प्रभावित रहे हैं ऐसा नहीं किन्तु अपने को ऋषीमहर्षी माननेवाले भी बुरी तरह से प्रभावित रहे है। धर्म तत्त्व के नामपर इसी वृत्तिका परिपोषण भी हुआ है। स्वयं आत्मज्ञानी न होने के कारण और आत्मज्ञ-तत्त्वज्ञ सन्तों की उपासना न करने के कारण आत्मा की एकता का यह अनन्यसाधारण वैभव इस जीव के लिए जैसे अश्रुतपूर्व रहा वैसे ही अपरिचित एवं अननुभत ही रहा । अन्तरंगमें विद्यमान किसी न किसी सूक्ष्म मोह भाव से अन्ध होने के कारण यह जीवात्मा इस सुन्दरता का दर्शन नहीं कर पाया। आत्मा के स्वतंत्रता धर्म की प्रतीति वह कर नहीं पाया। केवल स्थूल पापरूप अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होने मात्र से कृतकृत्यता की भावनाओं में बुरी तरह फँस जाने से धर्मभावों के सहचारी शुभभावस्वरूप बाह्य प्रवृत्तियों के चक्र से स्वयं को विमुक्त नहीं कर पाये । इसीलिए वह आत्मा की वैभवशाली एकता की अनुभूति से कोसों दूर ही रहा । विश्व में विद्यमान पदार्थों में व्याप्त होकर भी अपनी पृथक् सत्ता से भिन्न आत्मा के एकत्व की अनुभूति कराना यही इस ग्रन्थप्ररूपणा का एकमात्र उद्देश है। शब्द शक्ति की अपनी मर्यादा है। वर्ण्य २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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