Book Title: Samayasara Author(s): Dhanyakumar G Bhore Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 6
________________ श्री समयसार २७ आचार्य कुन्दकुन्द देव के भावमय रत्न के लिए अमृतचन्द्र की भाषा मानों यथार्थ में सुन्दर सुवर्ण का अनुपम जडाव बना है। अद्भुत भावनात्मक एकता के सजीव सौंदर्य के लिए क्या कहा जाय वहाँ तो आत्मपूजक भाषादेवी स्वयं पूज्य और श्रेष्ठ बन गई है। आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका रचना की अपेक्षा सरल है, सुबोध है और मर्म को यथास्थान स्पष्ट करने में वह भी समर्थ हुई है । इन अधिकारों का विषय परिचय जीवाधिकार आमा का अनादि-अनंत, नित्योद्योतरूप सहज ज्ञायकभाव यह उसका स्वभाव है। स्वभाव का साक्षात् लाभ सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयद्वारा या अभेद रूप से विचारा जाय तो आत्मा के समाधि द्वारा ही संभाव्य है। द्रव्य और पर्याय रूप से सर्व प्रकार शुद्ध आत्मा साध्य है। और द्रव्यरूप से शुद्ध आत्मा ही (त्रिकाली ज्ञायकभाव ) अवलंब, आश्रय कारण है, उसके आश्रय से रत्नत्रय का विकास यह साध्यासिद्धि का एकमेव मार्ग होता है। सारांश, चाहे व्यवहार से कहो या निश्चय से कहो अपना आत्माही उपास्य सिद्ध होता है। यद्यपि आत्मा स्वयं स्वभाव से ज्ञानवान है उसका कभी नाश नहीं होता । अज्ञानी जीव ने राग की चक्कर में पड़कर आज तक ज्ञान की उपासना नहीं की। देह और आत्मा में एकता की कल्पना करते हुए रागद्वेषों की और अन्यान्य विकल्पों की ही पूजा की। पदार्थों को जानते समय ज्ञयों के विषय में तो आदरभाव प्रगट किया किन्तु देखनहार और जाननहार आत्मा को भूल ही गया-उसका यथार्य रूपेण समादर नहीं किया । ज्ञानस्वभावी आत्मा आत्मा के स्वभाव को नहीं जान पाया, देह और विकारों की पूजा करता रहा। देह के सन्निकट होकर उसे 'पर' के रूप में जानना इसमें वास्तव में आत्मा के आत्मत्व की पूरी सुरक्षा है । इसी आशयको, अरिहंत भगवान की स्तुति देहगुण स्तवन से नहीं किन्तु भगवान के गुणस्तवन करने से ही संभव है यह स्पष्ट किया है । अजीवाधिकार अज्ञानी की मान्यता जीव की तरह अजीव के विषय भी विपरीत होती है। वह कर्म, नोकर्म, कर्मफल, कर्मोदय निमित्तक सुख-दुःख रागादि विकार तथा संयोग और संयोगसापेक्ष विकारों को आत्मा के स्वरूप के रूप में स्वीकार करना है। नित्य पर्याय दृष्टि बने रहने के कारण नैमित्तिक अवस्थाओं से परे शुद्ध आत्मतत्त्व संभव है ऐसा विकल्प ही उसे आता नहीं। परंतु इनमें से देह-कर्मादिकों की पुद्गलमयता सुस्पष्ट ही है। रहा रागादि भावरूप अध्यवसानादि विकल्प वे क्षणिक होने के कारण उनकी व्याप्ति आत्मा के साथ घटित नहीं होती अपितु पुद्गलमय कर्मोदय के साथही होती है और निर्मल आत्मानुभूति में वे उपलब्ध नहीं होते इसलिए ये वर्णादि और रागादि भाव जीव से भिन्न और पौगलिक है। वे चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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