Book Title: Samayasara
Author(s): Dhanyakumar G Bhore
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 14
________________ श्री समयसार स्वभाव से ज्ञेयस्वरूप है। ज्ञान में उनके आकार झलकते है, ज्ञान उन ज्ञेयाकारों को जानता है ज्ञान को परद्रव्यों का ज्ञायक या दर्शक कहना यह केवल व्यवहार ही है। आपाततः यह ज्ञेय की चिंता एवं रागादि विकल्प स्वयं अपराधरूप सिद्ध होते है। रागादि विकल्पों से रहित अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित होना चारित्र है। इस सुदृढ आशय के आश्रय से ही ज्ञानी के भूतकाल संबंधी कर्मोदय में या क्रिया प्रवृत्तियों में राग नहीं होता निर्विकल्प स्वभाव स्थिरता होती है यह उसका वास्तव-यथार्थ प्रतिक्रमण है। इसी प्रकार वर्तमान काल संबंधी मनवचनकाय के क्रिया विकल्पादिकों के परित्यागरूप आलोचना और भविष्यकालीन क्रियाकाण्डरूप विकल्पों के परित्याग प्रत्याख्यान का अंतरंग या शुद्ध आत्मा का अनुभव ही होता है इसीलिए ज्ञानी जीव को त्रिकाल संबंधी क्रियाकाण्ड में राग नहीं होता इस प्रकार ज्ञानी कृतकारित अनुमोदना से सर्व कर्तृत्वबुद्धि त्याग करता है। अतीत-वर्तमान और भावी कर्म फल में राग को छोडता हुआ स्वयं को भिन्न जानता है इस प्रकार उसे कर्मफल का भोक्तृत्व भी नहीं होता। कर्म चेतना तथा कर्म फल चेतना से रहित होकर ज्ञान भाव में तन्मय होने से ज्ञान चेतनारूप से अविचल स्थित होता है। ज्ञानस्वभाव से ही स्पर्श-रसगंध वर्णादिक पर पदार्थों से भिन्न है वे पर पदार्थ ज्ञेयमात्र है। वे भिन्न होने के कारण वास्तव में वे न हेय है न उपादेय है। आत्मा और ज्ञान अभिन्न है इसलिए जैसे आत्मा ही ज्ञान है उसी प्रकार आत्मा ही संयम है, तप है, दीक्षा है यह सुतरां सिद्ध होने से ज्ञानी के शरीरादि परद्रव्याश्रित बाह्य लिंगों में ममकार बुद्धि नहीं होती। निश्चय नय से मोक्ष मार्ग का न मुनिलिंग लिंग है या गृही का परिवेष लिंग है। एकमात्र सर्वतो विशुद्ध आत्मा में स्थिर हुआ ज्ञान यही मुक्ति का लिंग है, वही श्रामण्य है, वही साम्य है, वही मोक्ष मार्ग में परमोपादेय प्रयोजनीभूत है। अतः एक शुद्ध ज्ञानतत्त्व में लीनता एकमात्र मोक्ष का साक्षात कारण होने से प्रयोजनभूत है। स्याद्वादाधिकार और उपायोपेयाधिकार आत्मवस्तु ज्ञानमात्र कहने पर भी टीकाकार आचार्य अमृतचंद्राचार्य ने आत्मा में अनेकान्त कैसे सिद्ध होता है यह युक्तिपूर्वक प्रगट किया है और साध्य साधन भाव भी सुघटित किया है। जहां आत्मवस्तु स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभाव से सद्रूप है उसही समय परद्रव्यादि चतुष्टयों से असद्रूप है। इसी प्रकार एकानेकत्व, नित्यानित्यत्व, तद्अतद्रूपत्व विवक्षीवश आत्मवस्तु में स्वयं सिद्ध है। अनेकान्त को माने बिना एकान्ती वस्तुतत्त्व का कैसे लोप करनेवाला होता है यह चौदह प्रकारों से संक्षेपतः प्रगट किया है । आत्मा की शुद्ध पर्याय साध्य और शुद्ध ज्ञायकभाव का अवलंबन साधन इसे संक्षेप में पुनः प्रगट किया है । ___ इस प्रकार समयसार में जो भी निरूपण है उसमें शुद्ध आत्मतत्त्व के ग्राहक शुद्धनय की प्रधानता है । इसी दृष्टि से प्रतिपाद्य विषय का विस्तार अपने स्वरूप का निराला सातिशय ही हुआ है । वस्तु स्वातंत्र्य यह जैन तत्त्वज्ञान का प्राण है । आत्मवस्तु तत्त्वज्ञान का केन्द्रस्थान है। इसीलिए ग्रंथ भर में आत्मस्वतंत्रता का और साधनस्वरूप स्वावलंबन का यत्रतत्र सर्वांगसुंदर समचतुरस्रसंस्थानरूप मनोहारी मूर्तिमान आविष्कार ही हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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