Book Title: Samanvay Ki Sadhna Aur Jain Sanskriti Author(s): Ramji Sinh Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 4
________________ १८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन परम्परा में भी साम्यदृष्टि के प्रतीक को 'ब्रह्म' कहकर साम्यमूलक आचार-विचार को ब्रह्मचर्य कहा है। बौद्ध परम्परा में मैत्री, मुदिता, करुणादि भावनाओं को ही ब्रह्मविहार माना गया है। धम्मपद (ब्राह्मणव ग्ग-२६) एवं महाभारत के शांतिपर्व की तरह जैन (उत्तराध्ययन २५) में समत्व करने वाले श्रमण को ही ब्राह्मण कहकर श्रमण और ब्राह्मण के बीच समन्वय करने की चेष्टा की गयी है। ___ यह साम्य-दृष्टि ही जैन-संस्कृति का हृदय है जो विचार, वाणी और व्यवहार में अभिव्यक्त करने की कोशिश की गयी है। व्यवहार-साम्य-जैन संस्कृति का सब आचार-व्यवहार साम्य दृष्टि-मूलक अहिंसा के पास ही निर्मित हुआ है। मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग ही नहीं वनस्पति और पार्थिव, जलीय आदि सूक्ष्माति-सूक्ष्म प्राणियों तक की हिंसा से आत्मौपम्य या प्राणभूत अहिंसा भावना को चोट पहुँचती है। इसी की व्याख्या के लिए जैन परम्परा में चार विद्यायें फलित हुई हैं, जिनके आधार पर ही ज्ञान प्राप्तकर हम आचार की अहिंसा साध सकते हैं-आत्म-मीमांसा, कर्म-मीमांसा, चारित्र-मीमांसा एवं लोक-मीमांसा । आत्म-मीमांसा-आत्मा का विचार जैनदर्शन में उपनिषद्-वेदान्त के ब्रह्म की तरह ही सर्वग्राही है। आत्मा कृमि-पिपीलिका-भ्रमर मनुष्य सबों में समान है। जीव-समानता के इस सैद्धान्तिक तात्त्विक विवेचन को जीवन-व्यवहार में यथासंभव उतारना ही अहिंसा है। जब सृष्टि के कण-कण में आत्मा व्याप्त है तो फिर हिंसा का स्थान ही कहाँ है ? यदि समानता की अनुभूति ही नहीं हो तो फिर आत्म-साम्य का सिद्धान्त ही झूठा है। आचारांग में कहा ही गया है कि "जैसे तुम अपने दुःख का अनुभव करते हो वैसा ही पर दुःख का अनुभव करो' । उपनिषद् और वेदान्त भी अहिंसा का समर्थन अद्वैत के आधार पर करता है क्योंकि सारे जीव ब्रह्म के रूप हैं। 'सर्वं खलु इदं ब्रह्म ।' 'ईशावास्यमिदं सर्वम् ।' 'तत्त्वमसि' या 'ब्रह्मास्मि' तो अद्वैत की पराकाष्ठा है । लेकिन विशिष्टाद्वैत में भी जीव ईश्वर का ही अंश है। अद्वैत-परम्परा जीव-भेद को मिथ्या मानकर अहिंसा का उद्बोधन करती है। जैन परम्परा में जीवात्मा का वास्तविक भेद स्वीकार कर भी तात्त्विक रूप से सबों को एक मानकर अहिंसा-धर्म को प्रतिष्ठित किया जाता है। कर्म-मीमांसा–प्रश्न है जब तात्त्विक रूप से सब जीव समान हैं तो फिर उनमें विषमता क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए ही कर्मवाद लाया गया है। जैसा कर्म होगा, वैसा फल मिलेगा। वर्तमान का निर्माण अतीत के आधार पर परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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