Book Title: Samanvay Ki Sadhna Aur Jain Sanskriti
Author(s): Ramji Sinh
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 7
________________ २१ समन्वय की साधना और जैन संस्कृति सहारा लिया लेकिन विशिष्टाद्वैत के निरूपण में अनेकान्त-दृष्टि का उपयोग किया। ब्रह्म चित् भी है, अचित् भी, ऐसा सोच वस्तुतः अनेकान्त-दृष्टि का ही परिचायक है। पुष्टिमार्ग के पुरस्कर्ता वल्लभ शुद्धाद्वैत में और निम्बार्क ने द्वैताद्वैत में द्वैत और अद्वैत दोनों का समन्वय किया। यह भी समन्वयकारिणी अनेकान्त-दष्टि ही है। यों तो वेद-उपनिषद् की भी विवेचना की जाय तो उनके वचनों को समझने के लिए अनेकान्त दृष्टि का ही संस्पर्श मिलेगा। नासदीयसूक्त में जगत् के कारण को 'न सत् न असत्' कहा गया है । शायद शब्द में इतनी शक्ति नहीं कि उस परमतत्त्व को प्रकाशित कर सके । कहीं पर असत् से सत् की सृष्टि बतायी गयी है-'असद्वा इदमग्र आसीत्'-तैतिरीय २१७, तो कहीं सत् से सृष्टि बनने की बात है-'सदेव सोम्येदमग्र आसीत्'-छान्दोग्य ६२, ईशावास्य में तो उस परमतत्त्व के वर्णन में 'तदैजति तन्नजति, तद्दूरे तदन्तिके' आदि कहकर और भी स्पष्ट किया गया है। पिप्पलाद ऋषि के अनुसार प्रजापति से सृष्टि हुई (प्रश्नोपनिषद् ११३॥१३), किसी के अनुसार जल, किसी के अनुसार वाक्, अग्नि, आकाश, प्राण को विश्व का मूल कारण माना गया है। (बृहदारण्यक ५।५।१, छान्दोग्य, ४३, कठोप, २।५।९, छान्दोग्य १।९।१, १११११५ आदि)। इन सूत्रों का अर्थ है कि विश्व के कारण की जिज्ञासा में अनेक मतवादों का प्रादुर्भाव हुआ जिसका स्पष्ट संकेत वेद-उपनिषद् में मिलता है। मतों के इस जंजाल में भी समन्वय करने का प्रयास किया गया है। मानों जैसे सभी नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं 'उद्धाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ -सिद्धसेन द्वात्रिशिका ४१५ बद्ध के विभज्यवाद और मध्यम प्रतिपदा के सिद्धान्त पर भी हम अनेकान्तदष्टि का संस्पर्श पाते हैं जब अंतों के मध्य में रहने का आदेश मिलता है । शाश्वतवाद और उच्छेदवाद आदि द्वन्द्वों के बीच समन्वय किया गया है। भगवान् बुद्ध द्वारा लोक-संज्ञा, लोक-निरुक्ति, लोक-व्यवहार एवं लोक-प्रज्ञप्ति का आश्रय लेने का स्पष्ट संकेत है। बुद्ध ने कहा है-'हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं।' (मज्झिम निकाय-सुत्त ९९)। हाँ भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था, किन्तु महावीर का क्षेत्र व्यापक था। इसी कारण विभज्यवादी होते हुए भी बौद्ध दर्शन अनेकान्त की ओर काफी अग्रसर हुआ है। महावीर ने विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक बनाया है एवं विरोधी धर्मों के अनेक अन्तों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षा भेद से घटाया है। इसी कारण विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्त परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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