Book Title: Samanvay Ki Sadhna Aur Jain Sanskriti Author(s): Ramji Sinh Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 1
________________ समन्वय की साधना और जैन संस्कृति ___ डॉ. रामजी सिंह समन्वय भारतीय संस्कृति की सर्वोच्च साधना रही है । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने भारत को मानव-संस्कृतियों का सागर कहा है और इस प्रणय-तीर्थ में माता के मंगलघट को भर देने के लिये सबों का आह्वान किया है। हाँ साधना जितनी ही श्रेष्ठ होती है, उसकी यंत्रणा उतनी ही दुस्सह होती है। इसलिए भारत को इस समन्वय-साधना के हेतु समय-समय पर अपार यंत्रणा सहनी पड़ी है। लगता है, समन्वयरूपी अमृत प्राप्त करने के लिए गरलपान करना ही होता है। __ शायद, समन्वय हमारी संस्कृति की अनिवार्यता है। हमारा रूप-रंग, भाषा, वेश-भूषा, रस्म-रिवाज, धार्मिक आस्था और विश्वास आदि कभी भी एक जिन्सी नहीं रहा । आर्यों एवं अनार्यों के बीच संघर्ष चलने के बाद ही हमारी जीवन-पद्धति ने निर्णय किया होगा कि 'समन्वय' ही मानव-जीवन का आदर्श हो सकता है। फिर तो आर्यों एवं द्रविड़ों के संयोग से एक भव्य भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ । इसी तरह पौर और जानपद संस्कृतियों के साथ उत्कृष्ट आरण्यक-संस्कृति का भी हम पर प्रभाव पड़ा । अरण्य के साथ सम्बन्ध होने से वृक्ष, वनस्पति आदि के परिचय के साथ वनस्पति का विज्ञान बढ़ा । वनस्पति का गुण-धर्म मालूम होने पर आहार-शास्त्र और आरोग्य-शास्त्र में प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग बढ़ा । चन्द्र किरणों का वनस्पति पर होने वाले प्रभावों का सूक्ष्म अध्ययन और पशु तथा मनुष्यों के बीच मूलभूत एकता की ओर ध्यान भी गया और अनुभव हुआ कि सर्वत्र एक ही चैतन्य है। शायद, यहीं पर हमें अहिंसा का साक्षात्कार हुआ। मांसाहार का परित्याग हमारा पशुजगत् और मानव-जगत् के बीच समन्वय की दिशा में एक प्रभावकारी कदम है। इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में एक वर्ग के द्वारा दूसरे का शोषण बन्द हो गया या ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच युद्ध हुए ही नहीं या यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि नहीं चली। लेकिन लोगों का सामान्य स्वभाव प्रेम, सहयोग, क्षमा और सहिष्णुता का ही रहा । साम, दाम, भेद और उपेक्षा आदि आजमाने के बाद ही दंड का प्रयोग होता था। आक्रमणकारी शक-शीथियन, गुर्जर, प्रतिहार आदि का भी हमने अपनी संस्कृति में समावेश कर लिया। हमने किसी देश के भू-भाग को परिसंवाद ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:orgPage Navigation
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