Book Title: Samanvay Ki Sadhna Aur Jain Sanskriti Author(s): Ramji Sinh Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 5
________________ समन्वय की साधना और जैन संस्कृति तथा अनागत का निर्धारण वर्तमान के आधार पर होगा। यही कार्य-कारणवाद भी है। यही पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का आधार है। अपने एवं पराये की वास्तविक प्रतीति न होना ही जैन दृष्टि से दर्शन-मोह है जिसे सांख्य-बौद्ध-अद्वैत परम्परा में अविद्या या अज्ञान कहा गया है। यद्यपि राग-द्वेष ही हिंसा के प्रेरक हैं लेकिन सबका कारण यही अज्ञान या अविद्या या दर्शन-मोह है। आत्मा जब अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता है तो वह राग-द्वेष के कारण हिंसा करता है। चारित्र मीमांसा -चारित्र का उद्देश्य आत्मा को कर्म से मुक्त करना है । कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है, पर व्यक्तिरूप से यह सम्बन्ध सादि है। आत्मा के साथ कर्म के प्रथम सम्बन्ध का प्रश्न व्यर्थ है । जैन परम्परा की तरह ही इसे न्यायवैशेषिक-सांख्य-योग-वेदान्त-बौद्ध सबों ने मान लिया है। ब्रह्म के साथ माया, आत्मा के साथ अविद्या का सम्बन्ध अनादि है। सर्वथा कर्म मुक्ति से ही आत्मा का पूर्ण शुद्ध रूप प्रकट होता है। सर्वथा कर्म छुट जाने से आत्मा का भास्वर एवं शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है एवं राग-द्वेष जड़ से मुक्त हो जाता है। इस तरह चारित्र्य का कार्य वैषम्य के कारणों को दूर करना है जो 'संवर', 'निर्जरा' आदि है। आध्यात्मिक जीवन का विकास आन्तर चारित्र के विकास-क्रम पर निर्भर है। जैन परम्परा में चौदह गुणस्थान में 'बहिरात्मा', 'अन्तरात्मा' और 'परमात्मा' तीन भूमिकायें हैं। अन्तिम भूमिका में रागद्वेष का उच्छेद हो जाता है और अहिंसा तथा वीतरागत्व प्रकट होता है। लोक-मीमांसा-जैन परम्परा में चेतन और अचेतन के परस्पर प्रभाव का ही यह संसार है। जैन परम्परा न्याय-वैशेषिक की तरह परमाणुवादी है, किन्तु इसका परमाणु न्याय-वैशेषिक की तरह कूटस्थ नहीं, बल्कि सांख्य की तरह परिणामी है। एक ही प्रकार के परमाणु से सब तरह की चीजें बनती हैं और वह इतना सूक्ष्म है कि सांख्य की प्रकृति की तरह अव्यक्त हो जाता है। जैन परम्परा का अनन्त परमाणुवाद प्राचीन सांख्य सम्मत पुरुषबहुत्त्व रूप प्रकृति-बहुत्त्ववाद से बहुत दूर नहीं है। जैन परम्परा सांख्य-योग-मीमांसा की तरह लोकप्रवाह को अनादि अनन्त मानती है । यानी कर्ता, संह" रूप से ईश्वर जैसी सत्ता को नहीं माना गया है। प्रत्येक जीव अपनीअपनी सृष्टि का आप ही कर्ता और अपना ही मुक्तिदाता है। इस तरह तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वरभाव है। विचार में साम्य : अनेकान्त-जैन परम्परा विचारों का सत्यलक्षी संग्रह होने के कारण किसी भी विचार सरणी की उपेक्षा नहीं करना चाहती है। यही परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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