Book Title: Sakaratmak Ahimsa Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 2
________________ दया, दान, अनुकम्पा, करुणा, मैत्रीभाव, वात्सल्य, वैयावृत्त्य आदि अहिंसा के विविध सकारात्मक रूप हैं । जैन वाङ्मय में दया को धर्म का मूल, दान को धर्म, वैयावृत्त्य (सेवा) को आभ्यन्तर तप, करुणा को जीव का स्वभाव, अनुकम्पा को सम्यक्त्व का लक्षण एवं वात्सल्य को सम्यग्दर्शन का अंग व आचार कहा गया है । समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव का अनेकत्र निर्देश है । सामान्यजन तो दया, दान, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों को धर्म हो मानते हैं, परन्तु वर्तमान में कुछ बुद्धिवादी व्यक्ति यह तर्क देते हैं कि अनुकम्पा, दया, रक्षा, वात्सल्य, सेवा आदि हिंसा की विधिपरक सद्प्रवृत्तियां कर्मबंध की हेतु होने से संसार में भ्रमण कराने वाली हैं । अतः मुक्ति में बाधक होने से धर्मरूप नहीं हैं । धर्म तो केवल निवृत्तिरूप ही होता है । परन्तु उनकी यह मान्यता न तो आगम-सम्मत है और न मानवीय दृष्टिकोण से उपयुक्त । वस्तुतः अनुकम्पा, वात्सल्य, मैत्री, मार्दव आदि भाव स्वभाव हैं, अतः धर्म हैं । यह आगमसम्मत सिद्धान्त है कि राग-द्वेष रूप कषाय ही कर्म के बीज एवं कर्मबन्ध के हेतु हैं । करुरणा, अनुकम्पा, वात्सल्य, प्रमोद, मैत्रीभाव आदि संवररूप धर्म हैं, कषाय नहीं । मैत्री, प्रमोद, करुणा आदि भावों तथा दया, दान, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों को संसार-भ्रमण का कारण मानना जैनागम के विरुद्ध है । जैनागम एवं कर्म सिद्धान्त के अनुसार प्रौदयिक भाव ही कर्मबंध में हेतु बनते हैं । दया, दान, अनुकम्पा, मैत्रीभाव, वात्सल्य, वैयावृत्त्य आदि कर्मबंध में हेतु नहीं हैं। यही नहीं ये पाप-क्षय के हेतु होने से मुक्ति में भी सहायक हैं । इनके प्रभाव में पाप प्रवृत्ति का निरोध एवं पापकर्मों का क्षय संभव नहीं है। साथ ही अहिंसा के ये सभी सकारात्मक रूप श्रात्म-विकास, व्यक्ति के कल्याण एवं सुन्दर समाज के निर्माण में हेतु हैं । इनसे जीवन का सर्वाङ्गीण एवं समीचीन विकास होता है । Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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