Book Title: Sadhna Sahitya aur Itihas ke Kshetra me Vishishta Yogdan Author(s): Lalchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. कार्यालय इन सभी संघों को शृंखलाबद्ध कर भाव सामायिक का एवं जीवन में सामायिक से परिवर्तन लाने का प्रचार-प्रसार कर रहा है । साधना के क्षेत्र में आचार्यश्री को यह भी एक महान् देन है। हस्ती गुरु के दो फरमान । सामायिक स्वाध्याय महान ।। साधुओं और स्वाध्यायियों के मध्य सन्तुलन-समन्वय बनाये रखने के लिये कुछ ऐसे लोगों के संगठन की आवश्यकता महसूस हुई जो साधना के क्षेत्र में प्रगति कर रह हों. जो अपनी गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं के कारण साधु बनने में तो असमर्थ हैं, फिर भी अपना जीवन बहुत ही सादगी से, अनेक व्रतनियमों की मर्यादाओं से, शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापनपूर्वक साधना में बिताते हैं । ऐसे साधकों का एक साधक संगठन भी बनाया गया, जिसका मुख्य कार्यालय उदयपुर में श्री चाँदमलजी कर्णावट की देखरेख में चल रहा है। इस संघ की तरफ से वर्ष में कम से कम एक साधक-शिविर अवश्य लगता है जिसमें ध्यान, मौन, तप आदि पर विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। इन्दौर, जलगाँव और जोधपुर में इन शिविरों में मैंने भी भाग लिया और मुझे इनमें साधक जीवन के विषय में अनेक बातें सीखने को मिली और चित्त को बड़ी शांति प्राप्त हुई। ___यों तो प्राचार्य प्रवर का पूरा जीवन ही साधनामय था किन्तु उन्होंने अपने अन्तिम जीवन से लोगों को आत्म-साक्षात्कार की शिक्षा भी सोदाहरण प्रस्तुत करदी। यह साधना के क्षेत्र में गुरुदेव की हम सबके लिये सबसे बड़ी देन है। वे देह में रहते हुए भी देहातीत अवस्था को प्राप्त हो गये। उन्होंने यह प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया कि शरीर और आत्मा भिन्न है। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है । शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरती । जिसे यह भेदज्ञान हो गया है, वह निर्भय है। उसे मुत्यु से क्या भय ? उसके लिये मृत्यु तो पुराने बस्त्र का त्याग कर नये वस्त्र को धारण करने के समान है । उसके लिए मृत्यु तो महोत्सव है। समाधिमरणपूर्वक शरीर के मोह का त्याग कर, मृत्यु का वरण कर, गुरुदेव ने हमारे समक्ष देहातीत अवस्था का, भेदज्ञान का प्रत्यक्ष स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर दिया। यह साधना के क्षेत्र में गुरुदेव की सबसे बड़ी देन है। साहित्य का क्षेत्र : आचार्य प्रवर बहुत दूरदर्शी थे । जब उन्होंने देखा कि जैन धर्म की कोई उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका नहीं निकलती जो गोरखपुर से निकलने वाले 'कल्याण' की तरह प्रेरक हो, तब उन्होंने भोपालगढ़ से 'जिनवाणी' मासिक पत्रिका प्रारम्भ करने की प्रेरणा दी । यह पत्रिका दिनोंदिन प्रगति करती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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