Book Title: Sadguru ke Prati Samarpan Author(s): Hirachandra Acharya Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवर्ग-2011 जिनवाणी " प्रवचन सद्गुरु के प्रति समर्पण आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी महाराज गुरु के प्रति जिसका समर्पण भाव होता है वह गुरु से सर्वविध ज्ञान एवं साधना के सूत्र प्राप्त कर सकता है। गुरु के प्रति जिसकी श्रद्धा होती है उसकी धर्म के प्रति श्रद्धा होती है। गुरु भी वही श्रेष्ठ है जो भक्त को अपने से नहीं जोड़कर धर्ममार्ग से जोड़ता है। गुरु चेतन व्यक्ति के जीवन को घड़ता है। उसमें शिष्य के प्रति उपकार बुद्धि होती है। आचार्यप्रवर के प्रस्तुत संकलित इस प्रवचन में समर्पण के साथ धर्माराधन की प्रेरणा की गई है। -सम्पादक बंधन में डालने वाले तीन तत्त्व कहे गये हैं। तन की आसक्ति बंधन में डालने वाली है। धन की ममता बंधन में डालने वाली है। परिवार का मोह संसार-चक्र में घुमाने वाला है। बंधन के इन तीन तत्त्वों के कारण अज्ञानी जीव, मोही जीव, आसक्ति वाला जीव आज तक संसार में चक्कर लगा रहा है। बन्धन-मुक्ति के भी तीन तत्त्व हैं- देव, गुरु और धर्म। देव धर्म के आदर्श रूप हैं। जिन्होंने धर्म को एकमेक कर लिया। धर्म के साकार आधार बन गये। बंधन में डालने वाले राग, ममता, आसक्ति और मोह को समाप्त कर जो वीतराग अवस्था प्राप्त कर गये, ऐसे आराध्य देवाधिदेव बन्धन-मुक्ति के प्रथम सहायक कारण हैं। ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों का संग पाकर पापी से पापी, अधर्मी से अधर्मी, हत्यारे तक अपने पाप का निराकरण कर उसी जन्म में मुक्ति प्राप्त कर गए। दूसरा आराध्य तत्त्व है 'गुरु'। गुरु स्वयं वीतराग वाणी को हृदय में बसाकर, महाव्रत-समिति-गुप्ति की आराधना कर स्वयं तिरने के मार्ग पर चलते हैं तथा दूसरों को इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा करते हैं। इन गुरुदेवों ने, संत भगवन्तों ने और तिरने-तारने वाले महापुरुषों ने न जाने कैसे-कैसे नास्तिकों की धारणाएँ बदलकर उन्हें आस्तिक बनाया। गिरे हुए पतित लोगों को ज्ञान का प्रकाश देकर पावन बनाया। न जाने कितने पापाचरण करने वाले लोगों को पाप से हटाकर साधना-पथ पर बढ़ाया। इन सबमें जो शक्ति है-साधना है वह धर्म की साधना है। 'धर्म' तीसरा तत्त्व है, जो मुक्ति में सहायक है। देवाधिदेव साक्षात् दर्शन कराते हैं। जीव की करणी को ज्ञान के आलोक से समझा कर सन्मार्ग बताते हैं। गुरु भगवन्त अपना जीवन स्वयं निष्पाप बनाकर दूसरों को भी आगे बढ़ाने की प्रेरणा करते हैं। किन्तु तिरता वह है जो उनके चरणों में समर्पण करता है। श्रद्धा, विश्वास और अटूट आस्था के साथ जो अपने-आपको अर्पण कर देवह ही जीवन को मोड़ सकता है। एक समय था, जब बड़े-बड़े जिज्ञासु महापुरुष गुरु की खोज करते रहे। आचार्य पूज्य श्री धर्मदास जी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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