Book Title: Rushimandal Vrutti Purvarddha
Author(s): Shubhvarddhansuri, Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidyashala Ahmedabad

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Page 443
________________ ( ४३८ ) ऋषिमंगलवृत्ति - पूर्वाई. कोइए निवास्यो नहि. हे सुंदर ! पठी ते बन्ने मदा सतीयोए तेज कारण माटे. श्री परमेष्टीमंत्रनुं ध्यान श्रारभ्युं वे अने तेथीज श्रा म्हारुं वैमान स्खलन पाम्युं वे आज म्हारुं वैमान स्खलन पामवानुं खरं कारण तत्त्वी जाली ले,, माटे हे विधिज्ञ ! दवे तुं शंखचूक पासे जइ श्रने म्हारी प्राज्ञायी पांचे पांवने ठोकावीने तेने ते महासत्यो पासे तेमी जा. पबी तेमनुं ध्यान मूकावीने वहु दर्ष पमान. " इंइनां आवां वचनथी में पाताल लोकप्रत्ये जश्ने इंश्नां वचनथी वहु तिरस्कार करता बता शंखचूमने कह्युं के, “ अरे सर्वाधिप ! था निरपराधी ने श्रायुध रहित एवा पांगवाने शा माटे बांध्या वे ? ” पनी तेले " म्हारा सरोवरनां कमलोने लेवानी इच्छा करवायी में तेजुने बांध्या वे. "एम करूं एटले में ते सर्पाधिराजने श्री इंनी प्रज्ञा कही. इंनी श्रावी श्राज्ञा जाली शंखचूमे ते पांच पांगवाने पोतानां राज्यने विषे स्थापन कस्या. कह्युं ठेके - इंनी श्राज्ञा निरंतर मनुष्य, देवता अने असुरोने मान्य होय े. पती राज्यनां सुखने विषे स्पृहा रहित तथा तमारां चरणकमलने सेवन करवामां भ्रमररूप या पांगवाए तेनां राज्यने अंगीकार करयुं न दि. वली सर्पराजे प्रसन्न थने युद्धना श्रवसरे अर्जुनने सदाय्य करवानुं कथुं बे. भा वचन अंगीकार करीने सर्पराजे अर्जुनने एक श्राश्वर्यकारी दार प्रने वीजा चारेने वाजु, मुकुट, कुंमल ने महाविद्या आपीने पढी हे मात! ते तमारा न्यायवंत पुत्रोने म्हारी साथे श्रहिं मोकल्या बे; माटे दवे तमे मने तुरत इंनुं वैमान चलावानी श्राज्ञा श्रापी त्यां मोकलो. " प्रहितनां भावां वचन सांजली पदी सहित हर्ष पामेली कुंतीये ते देवने श्रानंदकारी वचनथी जवानी श्राज्ञा श्रापी अने पोते पोतानां हस्त कमलश्री युधिष्ठिरादि पुत्रोने स्पर्श करो. युधिष्ठिरादि पुत्रेो पण विनयश्री भक्तिवमे माताना चरणमां नमस्कार करना. इति पांवचरित्रे पांवतकी मावनवासादिवनिनामा चतुर्थोऽधिकारः ॥ ४ ॥ 1 निरंतर लोकमां सुखकारी ने पोताना भक्त जनोना सर्व विघ्नने नाड़ा करनारा चली महोदयरूप लक्ष्मीने माप्त करवामां प्रवीण एवा श्री अजितनाथ जिनेश्वरने हुं दधी नमस्कार करूं हुँ.

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