Book Title: Rushi Sampraday ve Panch So Varsh
Author(s): Kundan Rushi
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 3
________________ maaaaaaawaranandaCANKAIADAAAAAAASABAJANADADAJaswantIDABASAKinaaaaaaamaAJANASARABASADACHIKIAASANABALRAJARAMA आचार्यप्रवअभिनय श्राआनन्दान्थ५श्राआनन्द: OK २२० इतिहास और संस्कृति १८ माता की बात सुनकर बालक लवजी ने बताया कि माताजी सामायिक, प्रतिक्रमण तो मुझे याद है। इसको सुनकर और पूरी जानकारी होने पर माता के हर्ष का पार न रहा । श्री बजरंग स्वामी बालक की प्रतिभा, स्मरण शक्ति आदि को देखकर कुलाबाई से बोले कि यह बालक कुशाग्र बुद्धि का है, इसे जैनागमों का अभ्यास कराओ। माता ने इसके लिए अपनी अनुमति प्रदान कर दी। फूलाबाई की प्रार्थना अंगीकार करके श्री बजरंग स्वामी ने बालक लवजी को जैनागमों का अभ्यास कराना प्रारम्भ कर दिया और थोड़े से समय में ही दशवकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प आदि शास्त्रों का तलस्पर्शी अभ्यास कराया। शास्त्रों के पढ़ने और उनका मर्म समझ लेने से बालक लवजी को संसार से वैराग्य हो गया। गुरुजी भी बालक की इस मनोवृत्ति को समझ गये। वीराजी और फूलाबाई को लवजी की विद्वत्ता की जानकारी हुई तो उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए श्री बजरंग ऋषि जी का बहुत आदर-सत्कार किया। श्री लवजी शास्त्र ज्ञाता थे और तत्कालीन साधु आचार को देखकर बार-बार विचार करते तो हृदय में खेदखिन्न हो जाते थे। साधुसंस्था में व्याप्त शिथिलताचार कैसे दूर हो और पुनः आगमानुकल आचार का प्रसार हो, इसके लिए विचार करते थे। अन्त में इस निश्चय पर पहुंचे कि शिथिलाचारी साधुओं को सुधारने का सर्वोत्तम मार्ग यही है कि मैं स्वयं साधु दीक्षा अंगीकार करके आदर्श उपस्थित करूँ। अपनी भावना को नानाजी व माताजी के सामने रखा। उन्होंने आपको अनेक प्रलोभन दिये, समझाया, परीक्षा ली और अन्त में श्री बीरजी को मानना पड़ा कि अब लवजी को दीक्षा लेने से रोकना ठीक नहीं है। लेकिन इसके साथ यह शर्त रखी कि दीक्षा श्री बजरंग जी के पास लेनी होगी। बीरजी की उक्त शर्त सुनकर श्री लवजी श्री बजरंग ऋषिजी महाराज से मिले और भविष्य के सम्बन्ध में स्पष्टता कर ली कि अगर आपके और मेरे बीच आचार-विचार सम्बन्धी मतभेद नहीं उत्पन्न हुआ और ठीक तरह से आगमानुसार निभाव होता रहा तो आपकी सेवा में रहेंगा अन्यथा दो वर्ष बाद मैं स्वतन्त्र पृथक रूप से विचरण कर सकूँगा। श्री बजरंग ऋषिजी ने इस शर्त को स्वीकार किया। आपने सं० १६६२ में श्री बजरंग ऋषि जी से दीक्षा अंगीकार की। श्री बजरंग ऋषिजी ने आपको शास्त्रों का और अधिक अभ्यास कराया। तत्वज्ञान की प्रौढ़ता के साथ आचार भिन्नता, शिथिलता के प्रति आपकी विरक्ति बढ़ती गई। गुरुदेव से इस शिथिलता को दूर करने के लिए निवेदन किया, किन्तु वे अपनी वृद्धावस्था के कारण इसके लिए कुछ कर सकने में उदासीन ही रहे और श्री लवजी ऋषिजी को क्रियोद्धार करने की आज्ञा दी। . गुरुदेव की आज्ञा पाकर श्री लवजी ऋपिजी अपने साथ श्री थोभण ऋषिजी और श्री भानुऋषि नामक दो सन्तों को लेकर सूरत से खंभात पधारे । प्रतिदिन व्याख्यान होते और जनता में आपकी वाणी का प्रभाव फैलने लगा। खंभात के प्रमुख श्रेष्ठियों, प्रभावशाली व्यक्तियों और अन्य भाई-बहनों ने आपके TOY MPA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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