Book Title: Rushi Sampraday ve Panch So Varsh Author(s): Kundan Rushi Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ ऋषि सम्प्रदाय के पांच सौ वर्ष २१६ इस संकल्प को कार्यान्वित करने के लिए क्रान्तिदूत लोकाशाह ने आगमोक्त आचार-विचारों का प्रतिपादन करना प्रारम्भ कर दिया। बुद्धिजीवी वर्ग ने आपके कथन पर चिन्तन-मनन किया और धीर-धीरे अनेक व्यक्ति उनके अनुयायी बने। महावीर के शूद्ध संयम मार्ग का जोर-शोर से प्रचार करने लगे । प्रचार के साथ-साथ आपके विरोधियों द्वारा षड़यन्त्रों की परम्परा चालू हो गई, लेकिन अपने आत्मबल, सत्यनिष्ठा के द्वारा सब प्रकार के संकटों का मुकाबला करते हुए आप अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने लगे और आपके सदुपदेश से प्रेरित होकर एक साथ ४५ मुमुक्षुजनों ने साधु-दीक्षा अंगीकार करने की इच्छा व्यक्त की एवं आपके परामर्शानुसार श्री ज्ञान ऋषि जी महाराज के पास दीक्षा ली। बाद में इन ४५ महात्माओं ने अपने उपकारक महापुरुष के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए अपने गच्छ का नाम लोंकागच्छ रखा। इन ४५ महापुरुषों से प्रारम्भ हुआ लोकागच्छ दिनों दिन प्रगति करता गया। शुद्धआचारविचारों के समर्थक श्रावक-श्राविकाओं की संख्या-वृद्धि के साथ साधुओं की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई और करीब ७०-७५ वर्ष के अल्पकाल में ही साधुओं की संख्या ११०० तक पहुँच गई। किन्तु सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण के पश्चात् पुनः चारित्रिक शिथिलता के कारण लोंकागच्छ में ह्रास प्रारम्भ हो गया और आपसी फूट भी पड़ गई। इसके कारण पुनः धार्मिक स्थिति श्री लोकाशाह के पूर्व जैसी बन गई और इस स्थिति को सुधारने के लिए पुनः संयमपरायण महापुरुष की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। ऐसे समय में श्री लवजी ऋषि जी महाराज धार्मिक क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी के रूप में अवतीर्ण हुए। इन महापुरुष ने अनेक उपसर्गों का सामना करते हुए संयम मार्ग का उद्धार किया। आप श्री ऋषि सम्प्रदाय के आप संस्थापक हैं। उनके द्वारा प्रारम्भ की गई क्रियोद्धार की परम्परा आज तक अबाध गति से चल रही है। पूज्य श्री लवजी ऋषि जी महाराज विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुर्जर देशीय लोंकागच्छ के पाट पर श्री बजरंग ऋषि जी महाराज विराजमान थे। सूरत निवासी धार्मिक-आचार विचार सम्पन्न कोट्याधीस श्री वीर जी बोरा आपके परम भक्त और अनुरागी थे। आपके एक सुपुत्री थी। उसका नाम फूलाबाई था। फुलाबाई का विवाह सूरत के ही एक श्रेष्ठि पुत्र से हुआ था, लेकिन दैवयोग से युवावस्था में ही फूलाबाई के पति का देहावसान हो गया। आपके एक होनहार सुपुत्र था । जिसका नाम लवजी था। पति वियोग के पश्चात् फूलाबाई पिता के यहाँ रहने लगीं। माता एवं नाना के धार्मिक संस्कारों का बालक पर पूरा प्रभाव पड़ा । सात वर्ष की उम्र में ही सामायिक, प्रतिक्रमण के पाठों को कठस्थ कर लिया लेकिन इसकी जानकारी किसी को भी नहीं होने दी। किसी एक दिन फूलाबाई बालक लवजी को लेकर श्री बजरंगजी महाराज के दर्शन करने आई और बालक को सामायिक, प्रतिक्रमण आदि की शिक्षा देने की विनती की। बालक लवजी को भी गुरु महाराज के दर्शन करने एवं सामायिक, प्रतिक्रमण के पाठ सीखने की शिक्षा दी। आचाप्रसनभायामप्रसार श्रीआठस्य श्रीआनन् LO wimmommmmmmmanmayanamamarina Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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