Book Title: Rushi Sampraday ve Panch So Varsh
Author(s): Kundan Rushi
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 15
________________ AAJAAAAAJanuarandardaraMASABANANALANDredrocessonamusamaAAAAAAAAAwaseewanataramananesamirsasargreenamrosa Nil आचार्य प्रकार अभिन्न अध्या श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द २३२ इतिहास और संस्कृति सं० २००१ में प्रवर्तिनी श्री सिरेकवर जी म० के देवलोक हो जाने से हैदराबाद में मुनि श्री कल्याण ऋषि जी म० की उपस्थिति में आपको प्रवर्तिनी पद से अलंकृत किया गया। धार्मिक, शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना के लिये आप सदैव प्रेरणा देती रहती हैं। महासती श्री रामकंवर जी महाराज आपके पिताजी का नाम घोड़नदी (पूना) निवासी श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा था और माता का नाम चम्पाबाई । आपका लौकिक नाम छोटीबाई था। अठारह वर्ष की उम्र में आपके पति का वियोग हो गया । आप माता-पिता की इकलौती सन्तान थीं और उसके भी विधवा हो जाने से उन्हें विशेष दुख था। वे दोनों संयम मार्ग पर अग्रसर होने के विचार में रहते थे। इसके लिए वे मालवा में आये लेकिन दक्षिण की ओर सन्त सतियों ने मार्ग की बीहड़ता के कारण विहार करने में असुविधा बतलाई। जावरा में विराजित पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी महाराज से भी अपनी भावना जताई। आपने दक्षिणकी ओर विहार करने की स्वीकृति दी। सं० १६३६ अषाढ़ शु० ६ को माता सहित आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई और महासतीजी श्री हीराजी म० के नेश्राय में शिष्या हुई। दीक्षा के बाद आपकी माताजी श्री चम्पाजी म. के नाम से विख्यात हुई । आपका नाम महासती श्री रामकंवर जी रखा गया। आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। स्वभाव नम्र और सेवाभावी था। दक्षिण प्रान्त में पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी म. द्वारा जैनधर्म के प्रचार का जो कार्य प्रारम्भ किया गया था उसे पूज्य श्री रत्नऋषि जी म० ने अपने प्रयत्नों से अनेक गुना विकसित कर दिया । आपका संयमी जीवन ५३ वर्ष तक रहा। शारीरिक शिथिलता के कारण चार वर्ष धोड़नदी में स्थिरावास किया। यहीं सं० १९८९ कार्तिक कृष्णा २ को मध्य रात्रि के बाद पाँच प्रहर के अनशन पूर्वक इस भौतिक शरीर का त्याग किया। आपकी २३ शिष्याएँ हुई। विदुषी महासती श्री सुमतिकंवर जी म० आपका जन्म सं० १६७३ चैत्र शु० १० को घोड़नदी में हुआ था। पिता-माता के नाम क्रमश: श्री हस्तीमल जी दुगड़ और श्रीमती हुलासबाई था। आपने बाल्यकाल से ही महासती श्री रामकंवर जी म. से धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। आप जन्मजात मेधावी और प्रतिभाशालिनी हैं। आप बाल्यकाल से ही दीक्षा लेने की प्रवृत्ति रखती थीं। विवाह के १८ माह बाद ही पति का देहावसान हो जाने के पश्चात तो आपका एकमात्र लक्ष्य संयम ग्रहण करने का हो गया। इसके लिए आपको पितृ पक्ष और श्वसुरपक्ष से आज्ञा प्राप्त करने में काफी समय लगा, अन्त में स्वीकृति मिल गई। सं० १९६२ पौष शुक्ला २ को कोंडेगव्हाण ग्राम में आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई और महासती श्री शान्तिकंवर जी म० की नेश्राय की शिष्या बनी । नाम सुमतिकंवर रखा गया। दीक्षा के बाद आपने संस्कृत प्राकृत, न्याय, व्याकरण, आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन किया। आपकी विद्वता का सभी क्षेत्रों में प्रभाव पड़ता है। जहाँ भी विहार या चातुर्मास होता है, जनता आप की विद्वता सेलाभ उठाती है। देश के सभी क्षेत्रों में आपने विहार किया है और आज भी अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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