Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ > योजना कार्यान्वित होती अथवा नहीं। मैंने उक्त दोनों सज्जनों के प्रादेश से १५ अगस्त १६७३ से कार्य प्रारम्भ किया और ऐसा विचार किया गया कि प्रस्तुत कोश में प्रथमतः चार और पाँच हजार से अधिक शब्द न रखे जाँय और जो मी शब्द संकलित हों उनकी निरुक्ति और प्रयोग को अधिक वरीयता दी जाय । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, अद्यावधि प्रायोगिक वैशिष्ट्य को दृष्टि में रखते हुए कोई भी ऐसा कोश हिन्दी में देखने को नहीं मिला । अतः प्रस्तुत कोश इस दिशा मे निश्चय ही एक नव्य प्रयास है, इसमें किंचित सन्देह नहीं । कोश प्रस्तुत करते समय कुछ गुरुजनों और मित्रों की यह सलाह थी कि इस कोश में रीतिकाव्य के शास्त्रीय शब्दों को भी समेटा जाय पर मैंने जानबूझ कर उन्हें इसलिए नहीं रखा कि शास्त्रीय शब्दों का एक स्वतन्त्र कोश प्रस्तुत कोश के अतिरिक्त निर्मित किया जा सकता है । पुनः रीतिकाव्य के बहुत से शास्त्रीय शब्द 'साहित्यकोश' में अन्तर्भूत हो चुके हैं । नागरी प्रचारिणी सभा के हिन्दी शब्द-सागर के निकल जाने पर कुछ स्थानिक बोलियों के भी कोश प्रकाशित हुए जिनमें 'अवधी कोश' और 'सूर ब्रजभाषा कोश' मुख्य हैं । 'अवधी कोश' का सम्पादन श्री रामाज्ञा द्विवेदी "समीर" ने किया और 'सूर ब्रजभाषा कोश' का सम्पादन कार्य डा० दीन दयाल गुप्त एवं डा० प्रेमनारायण टण्डन के समवेत प्रयास से पूरा हुआ । अवधी कोश की तुलना में सूर ब्रजभाषा कोश की कलेवर वृद्धि अधिक की गयी और अन्ततः यही निष्कर्ष निकालना पड़ा कि सूर के कठिन एवं महत्व के शब्दों पर उतना विचार उक्त कोश में नहीं किया गया, जितना अनावश्यक विस्तार एवं उपवृ हरण ब्रजभाषा के व्याकरणीय रूपों पर । इसी प्रकार 'अवधीकोष' में भी महत्वपूर्ण शब्दों को स्थान देने के बजाय अति सरल और सामान्य कोटि के शब्दों से उक्त कोश को लाद दिया गया । और उसमें सूफी साहित्य की मुख्य शब्दावली का समावेश करना तो दूर रहा तुलसीदास के भी पूरे शब्द नहीं आ सके । मैंने “ रीतिकाव्य-शब्दकोश" के प्ररणयन में उक्त प्रयास किया है तथा उन्हीं शब्दों का संकलन किया है साधारण कोटि के शब्दों को जान-बूझ कर छोड़ दिया को ग्रहण करने की चेष्टा की गयी है तो उनके विशिष्ट अर्थ के बोधक होने के कारण । उदाहरणार्थं गंग कवि के एक छंद में मुझे 'धजा' शब्द प्राप्त हुआ, जिस प्रसङ्ग में यह शब्द प्रयुक्त है, वहाँ यह 'ध्वजा' प्रथं का बोधक न होकर 'मस्तक' या 'सिर' के अर्थ में गृहीत हुआ है । कोशकारों की प्रवृत्ति से मरसक बचने का जो विशिष्ट महत्त्व के हैं । पल्प महत्व एवं गया है और यदि सामान्य कोटि के शब्दों अभी तक हिन्दी कोशों में प्रायः कूटात्मक शैली या प्रवृत्ति के शब्दों की उपेक्षा की गई है । किन्तु जब प्राचीन हिन्दी काव्य का अध्येता अपनी जिज्ञासा के शमन के निमित्त हिन्दी कोशों के पृष्ठ पलटता है तो उसे निराश होना पड़ता है । मैंने यथाशक्य ऐसे कुटात्मक शब्दों को भी ग्रहण करने की चेष्टा की है; यथा श्राचार्यदास ने लक्ष्मण जी के लिए सौ हजार मन [ सौहजार = लक्ष + मन] शब्द का प्रयोग अपने 'काव्य निरय' में यथा प्रसङ्ग किया है । मैंने कोश के उपयुक्त समझ कर ऐसे शब्दों को सहर्ष प्राकलित करने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं किया । हिन्दी रीति-काव्य में कुछ ऐसे मुहावरे भी दृष्टिगत हुए हैं जिनका चलन अब नहीं रह गया । ऐसे मुहावरों पर भी प्रासङ्गिक दृष्टि से पुन: विचार किया गया है; यथा 'शृङ्गार-संग्रह' के एक में यह मुहावरा—“मेरो मन माई री बहीर को ससा भयो” सर्वथा नूतन है । ब्रजभाषा के थोड़े छन्द For Private and Personal Use Only

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