Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना हिन्दी के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते समय मैंने बहुत पहले एक ब्रजभाषा कोश की मपेक्षा का अनुभव किया था, पर उस समय नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हिन्दी - शब्द-सागर के अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य काश उपलब्ध नहीं था, जो प्रायोगिक साक्ष्यों के माधार पर प्राचीन शब्दों का वास्तविक ज्ञान करा सके । इसमें संदेह नहीं कि संस्कृत में वी० एस० आप्टे का संस्कृत अंग्रेजी कोश प्रायोगिक साक्ष्यों की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण कोश माना जाता है । पर हिंदी के प्राचीन काव्यों का अध्ययन अध्यापन भक्ति अथवा रीति वाङ्मय के एक मानक समिधान के अभाव में प्रायः पीछे छूटता गया, और परिणामतः लोग प्राचीनता को छोड़कर नवीनता की ओर लपके, क्योंकि यहाँ प्राचीन काव्यों की मांति अर्थ समझने की समस्या प्रायः गौण थी । प्राचीन काव्यो में रमने को जैसो वृत्ति और लगन पुराने खेवे के साहित्यकारों में थी, वैसी प्रायः नये सहित्यकारों में लचित नहीं होतो । कारण स्पष्ट है, तब डिग्री धारियों का ऐसा बोल बाला नहीं था जैसा अब । स्वयं पं० रामचन्द्र शुक्ल एवं लाला भगवानदीन दोन डाक्टर होना तो दूर रहा किसी विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट भी नहीं थे, किन्तु उस युग के कितने ऐसे डी० लिट् उपाधिकारी अब भी हैं, जिन्हें प्राचार्य शुक्ल जो ने उनके शोध प्रबन्ध को फिर से लिखने की सलाह दी थी । यह थी डिग्री विहीन मनीषियों को मनस्विता, जिस पर ब्राज भी हिन्दी साहित्य को गर्व है । लाला जी और आचार्य शुक्ल जी में प्राचीन काव्यों में प्रयुक्त अप्रचलित एवं विकृत शब्दों को पकड़ने की जैसी क्षमता थी, यदि उसे कसौटी बना कर विश्वविद्यालयों में सम्प्रति नव नियुक्तियां की जांय तो कितने ही विभाग के महन्त शिष्यमण्डली समेत बहिर्गत होने को वाध्य होगें । बाज तो युग और परम्परा बदल चुकी है । अब न देव के ग्रन्थों का अर्थ समझना है और न बिहारी और पद्माकर की काव्यगत विशिष्टता । उलटे लाला भगवान दीन जी की खिल्ली इस लिए उड़ाई जाती है कि वे केवल टीकाकार थे समर्थ आलोचक नहीं, पर जो मूलग्रन्थों को पूर्णतया नहीं समझ पाता वह झूठी मालोचना की जिला और पालिश से काव्य में कहां तक दीप्ति उत्पन्न कर सकता है, यह सहज सम्भाव्य है । वस्तुतः लाला जी हिन्दी के मल्लिनाथ था उन्होंने उस युग में केशव एवं बिहारी के दुरूह ग्रन्थों का माष्य प्रस्तुत किया जब हिन्दी के प्राचीन शब्दों का कोई कोश नहीं था मौर केवल संस्कृत के कोशों से पूर्णतया काम चल नहीं पाता था । रामचन्द्रिका मोर सतसई उस समय मी एम० ए० के पाठ्यक्रम में निर्धारित थी । प्रयाग के स्वर्गीय डा० धीरेन्द्रवर्मा और बाबूराम सक्सेना इस बात के साक्षी हैं कि जब लाला जी की "केशव कौमुदी" प्रकाशित नहीं थी, उस समय दोनों महानुमाव किस कठिनाई से अर्धरात्रि तक पढ़ते थे और सुबह क्लास में छात्रों को ठीक-ठीक अर्थ बताने में धाना-कानी करते थे । लाला जी का बचपन बुंदेलखण्ड के उन अंचलों में बीता, जहां केशव, बालमे, ठाकुर, जैसे बुंदेलखण्डी कवियों द्वारा प्रयुक्त शब्दावली जन कण्ठ पर विराजमान है । क्या बुंदेलखण्डी का ठीक ज्ञान न रखने पर केवल संस्कृत कोशों के आधार पर केशव के ग्रन्थों का ठीक ठीक अर्थ किया जा सकता है ? इसका सहज उत्तर होगा कथमपि नहीं । वास्तव में लाला जी के श्रम एवं उनके For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 256