Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६ > से हो कवियों में ऐसा मुहावरा देखने को मिला है । प्राचीन काव्य में इस प्रकार के मुहावरे मुझे जहाँ कहीं मिले हैं, मैंने उन्हें निःसंकोच ग्रहण किया है । प्राचीन शब्दों का चयन करते समय लिंग एवं क्रियाओं के रूप निर्धारण करने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा । कारण यह है कि खड़ी बोली में लिंग और क्रियाओं के स्वरूप बहुत कुछ स्थिर हैं, पर ब्रजभाषा और अवधी सादि की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । कुछ उदाहरणों से हमारे कथन की पर्याप्त पुष्टि हो सकती है । यथा, ब्रजभाषा में 'गेंद' स्त्रीलिंग में प्रयुक्त हुआ है, पर साधारणतः यह पुलिंग में ही गृहीत होता है । इसी प्रकार “शोर" शब्द है तो पुलिंग के अन्तर्गत, किन्तु दीनदयाल गिरि के प्रयोग से स्पष्टतया प्रतीत होता है कि यह स्त्रीलिंग है, नमूना लें -- " सुनै कौन या ठौर जिते ये खल की सोरैं ।" पुनः क्रियानों के सकर्मक और अकर्मक रूपों के निर्धारण में कहीं-कहीं रुकना पड़ा है, फिर भी उनके सम्बन्ध में यत्र-तत्र मतभेद की मी गुंजाइश हो सकती है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता । मुद्रित ग्रन्थों से ही किया गया है । मुद्रित ग्रन्थों में अधिकांशतः ऐसे बनारस के लाइट प्रेस, भारत जीवन प्रेस, लखनऊ के नवल किशोर कृष्णदास के यहाँ से प्रकाशित हुए थे । इन ग्रन्थों के शुद्ध पाठ को शब्दों का चयन प्राप्त ग्रन्थ भी हैं, जो सैकड़ों वर्ष पूर्वं प्रेस तथा बम्बई के खेमराज श्री समझने और उनके मूल रूपों की कल्पना करने में मेधा को कहाँ तक दौड़ लगानी पड़ी है, इसे भुक्त भोगी ही समझ सकते हैं । हाँ, मथुरावासी पं० जवाहरलाल चतुर्वेदी को ऐसे पाठों से बहुत बड़ी शिकायत होगी । पर चतुर्वेदी जी यह भूल जाते हैं कि सम्प्रति हस्तलेखों की उपलब्धि ब्रह्म प्राप्ति से मी कठिन तथा दुर्लभ है । वस्तुस्थिति यह है कि राजाश्नों की लाइब्रेरी में तो सामान्य व्यक्ति का पहुँचना ही अति कठिन है, पर जहाँ नागरी प्रचारिणी सभा, काशी और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग जैसी राष्ट्रीय संस्थानों के हस्तलेखों के विनियोग-उपयोग का द्वार भी सामान्य व्यक्ति के लिये बन्द हो वह कौन सा द्वार खटखटाए ? वस्तुतः यह दुख का विषय है कि जिस पुनीत भावना से प्रेरित होकर वहाँ डा० श्यामसुन्दर दास एवं राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जैसी विभूतियों ने हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि एवं संवर्धन के निमित्त उक्त स ंस्थाओं को स ंस्थापना की थी, वे ही आाज दलबन्दी, जातीयता, सकता एवं स्वार्थपरक विचारों के पंक में पड़कर अपने लक्ष्य से स्खलित हो रही हैं - च्युत हो रही हैं । सत्य तो यह है कि बहुत लिखा-पढ़ी करने के पश्चात् यदि हस्तलेखो को देखने का अधिकार मिल भी गया तो प्रतिलिपि के अधिकार से तो सतत प्रयत्न करने पर भी वंचित होना पड़ता है । यदि किसी उदारमना अधिकारी से प्रतिलिपि करने का आदेश मिल भी गया तो उतने अंश का ही जितना वह "ऊँट के मुंह में जीरा" कहावत को चरितार्थ करता है । साहित्य के प्रबुद्ध अध्येता को इस रहस्य के समझने में किंचित देर नहीं लगेगी, यदि दृष्टि फैला कर भीतरी कुचक्रों और राजनैतिक झंझावातों को समझने का कुछ अवसर मिले । कहा जाता है कि इन स ंस्थाओं के अधिकारियों की ग्रन्थ- प्रकाशन की अपनी योजनाएँ हैं और ऐसे योजनाबद्ध स्वांग और नाट्य-प्रदर्शन से सरकार के साथ भी प्रवंचना की जाती है । ऐसी स ंस्थानों से पुस्तकें धड़ल्ले के साथ निकल रही है, प्राचीन ग्रन्थों का मी खूब सम्पादन हो रहा है | सम्पादक जी भले ही सम्पादन- कला की बारहखड़ी भी न पढ़े हो, पर सम्पादन कार्य में वे मूर्धन्य स ंपादकों में परिगणित होते हैं । सम्पादन उन्हीं का है या किसी से कराया गया है, यह भी For Private and Personal Use Only

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