Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) वैदुष्य का मूल्यांकन वे ही कर सकेगें, जिन्हें प्राचोन काव्यों के दुरुह एवं ध्वान्तपूर्ण मार्ग से गुजरना पड़ा है। ऐसे दुर्गम कान्तार में भी लाला जी ने अपने भाष्य का जैसा पालोक बिखेरा है और पथ की भीषणता का जैसा परिहार किया है, इसे उस पथ के सच्चे पथिक ही बता सकते हैं। कहा जाता है कि कालिदास की वाणी दुख्यिारूपी विष से मूछिता थी उसे मल्लिनाथ की संजीवनी व्याख्या ने पुनर्जीवित किया । इसमें सदेह नहीं कि प्राचीन काव्यों की अनेकशः भ्रांतियों का निराकारण करने वाली लाला जी की संजीवनी व्याख्या ने मृतप्राय रीति काव्य को पुनः नवजीवन दान दिया। लाला जी के समान पाचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल घनानन्द को कितना समझते थे और सेनापति कृतं कवित्त रत्नाकर के 'श्लेषतरगं" के संश्लिष्ट पर्थ को खोलने में वे कितना जुटते थे और पाने वाली कठिनाइयों से ग्रीष्मावकास के चरणों में कितना जूझते थे इसका ज्वलन्त प्रमारण पं. उमाश'कर जी शुक्ल हैं, जिन्हें सेनापति की कठिनाइयों के सिलसिले में शुक्ल जी का द्वार खटखटाने का प्रवसर प्राप्त हो चुका है। हिन्दी के पूर्वमध्ययुग की रचनाओं के आधार पर एक कोश प्रस्तुत करने की योजना डा० माता प्रसाद गुप्त ने बनाई थी,किन्तु उनके असामयिक निधन से यह कार्य पड़ा ही रह गया। इधर विशेषतया प्रहिन्दी भाषाभाषियों की कठिनाइयों को दृष्टि-पथ पर रखकर मैंने केवल रीतिकाव्य से सम्बन्धित एक ऐसे कोश की रचना का विचार किया, जिसमें केशव से लेकर ग्वाल तक की शब्दावली उक्त कोश में पा जाय । पर कार्य की गुरूता को देखते हये इस कार्य में संलग्न होने का साहस न कर सका । कदाचित कोई सहायक मिलता तो कार्य की गुरुता को समेटने का यत्किंचित साहस भी प्रदशित करता, पर ऐसा अवसर नहीं मिला। करीब आठ दस साल पूर्व मैंने प्राचीन हिन्दी काव्य की पाठ एवं अर्थ-समस्या विषय पर कई लेख प्रस्तुत किए थे, जो 'हिन्दुस्तानी', 'सम्मेलन पत्रिका', पौर 'रसवन्ती' में प्रकाशित भी हुए थे। उनका पुर्नमुद्रण मैंने प्राचीन साहित्य के कई विद्वानों की सेवा में भेजा था । उन लेखों में कुछ ऐसे शब्दों पर प्रथम बार विचार हुपा था, जिनकी प्रकाशित कोशों में कुछ भी चर्चा नहीं थी। मेरे इस प्रयास को काशी के प्राचार्य पं० विश्वनाथप्रसाद जी मिश्र, स्व० डा० भवानी शंकर याज्ञिक, स्वर्गीय ब्रजरत्नदास बी० ए, तथा स्व० प्राचार्य रामचन्द वर्मा के अतिरिक्त श्री प्रभुदयाल जी मीतल एवं डा. सत्येन्द्र जी ने पर्याप्त श्लाघा की थी। श्री मीतल जी ने तो प्राचीन हिन्दी काव्य के एक कोश की आवश्यकता पर बल भी दिया था, पर इस कार्य को व्यय एवं श्रमसाध्य समझ कर वे कुछ अधिक नहीं कह सके । कुछ वर्ष पूर्व जब वे 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि लेने के लिए प्रयाग पधारे तो मैंने कोश की पुनः चर्चा की, पर अपनी अवस्था और कार्य की गुरुता को समझते हुये वे इस सम्बन्ध में मौन ही रहे। . कोश की पुनः चर्चा चलने पर हमारे सहपाठी पं० हरिमोहन मालवीय और 'स्मृति प्रकाशन' के अधिकारी पं० बालकृष्ण त्रिपाठी के निरन्तर पाग्रह ही नहीं परम दुराग्रह के कारण मुझे वाध्य होकर अपने दुर्बल कंधों पर यह मार लेना ही पड़ा । सच तो यह है कि यदि इन दोनों महानुभावों का कशाघात मेरे ऊपर न पड़ता तो कह नहीं सकता कि मुझ जैसे प्रमादी एवं मालसी व्यक्ति से यह १-मारती कालिदासस्य दुव्याख्या विषमूर्छिता । एष संजीविनी व्याख्या तामद्योज्जीवयिष्यति । -कुमारसंभव-प्रथम सर्ग For Private and Personal Use Only

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